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नाटो: दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य गठबंधन [75 years of NATO] | DW Documentary हिन्दी

1949 से नाटो ने यूरोप की सुरक्षा नीति को जितना प्रभावित किया है, उतना किसी संगठन ने नहीं किया. नाटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन के आर्टिकल 5 में ‘कलेक्टिव डिफेंस’ का उल्लेख है. लेकिन क्या दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य संगठन अपनी रक्षा कर सकता है? नाटो की 75वीं सालगिरह पर यह डाक्यूमेंट्री, इस संगठन के अतीत, भविष्य और वर्तमान का आकलन करती है. साथ ही, इसकी कमजोरियों को भी रेखांकित करती है. उदाहरण के लिए ‘नार्थ अटलांटिक ट्रीटी’ का आर्टिकल 5 सिर्फ कहने के लिए बाध्यकारी है. सदस्यों के बीच आपसी सहमति ज़रूरी है लेकिन सुनिश्चित नहीं है और आपातकालीन स्थितियों में सैन्य व रक्षा आपूर्ति प्रभावित इलाक़े में तुरंत पहुँचाने को लेकर गारंटी भी पूरी नहीं है. यह फ़िल्म सैन्य गठबंधन के अधिकार क्षेत्र वाले इलाक़े में लेकर जाती है. फ़िल्मकारों ने एस्टोनिया के टालिन स्थित नाटो के साइबर डिफेंस सेंटर का भी दौरा किया. यहाँ से वे जर्मनी के उल्म गए जहां नाटो की सैन्य टुकड़ियां और सैन्य आपूर्ति सामग्रियों का भंडार है. अगला पड़ाव ब्रसेल्स स्थित नाटो का मुख्यालय था, जहां राजनीतिक निर्णय लिए जाते हैं. इस फ़िल्म में नाटो के मौजूदा और पूर्व उच्च रैंक वाले जनरलों के साथ ही रक्षा विशेषज्ञों से भी बातचीत की गई है. अंतरराष्ट्रीय इतिहासकारों की मदद से, डॉक्यूमेंट्री नाटो के बीते 75 वर्षों के इतिहास पर भी नज़र डालती है. दूसरे विश्व युद्ध के विध्वंसक परिणामों के बाद स्थापित इस संगठन के निर्माता दुश्मनों को रोकना चाहते थे. उससे भी ज़्यादा अहम मकसद था संगठन के सदस्य देशों के बीच शांति क़ायम करना. वे फिर से जर्मनी को ताक़तवर होते नहीं देख सकते थे. डाक्यूमेंट्री में अब तक अनदेखी आर्काइव सामग्री इस्तेमाल की गई है: 1950 के दशक नाटो के सदस्य देशों की तस्वीरें ताकि सैनिकों में एक-दूसरे के देशों के बारे समझ और एकजुटता बने. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन और राजनयिक वुल्फगांग इशिंगर जैसे महत्वपूर्ण चश्मदीद इस फिल्म में दिखेंगे. वे नाटो के वर्तमान परिपेक्ष्य पर प्रकाश डालते हैं कि वर्ष 2018 में अमेरिका नाटो छोड़ने के कितने क़रीब था? और उसके क्या नतीजे हो सकते थे? क्या सच में सोवियत संघ के विघटन के बाद नाटो का पूर्व की ओर विस्तार नहीं करने का आश्वासन दिया गया था? फिल्म इसी सवाल का जवाब ढूंढती है जिसने रूस और नाटो के वर्तमान संबंधों को आकार दिया है. #DWDocumentaryहिन्दी #DWहिन्दी #nato #coldwar #russia ---------------------------------------------- अगर आपको वीडियो पसंद आया और आगे भी ऐसी दिलचस्प वीडियो देखना चाहते हैं तो हमें सब्सक्राइब करना मत भूलिए. विज्ञान, तकनीक, सेहत और पर्यावरण से जुड़े वीडियो देखने के लिए हमारे चैनल DW हिन्दी को फॉलो करे: @dwhindi और डॉयचे वेले की सोशल मीडिया नेटिकेट नीतियों को यहां पढ़ें: https://p.dw.com/p/MF1G

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1 day ago

"नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन" या 'नाटो' का गठन 75 वर्ष पहले किया गया था. इसका लक्ष्य था युद्ध होने से रोकना. 75 साल का यूरोप का इतिहास वो भी बिना युद्ध के. यह एक सफल समझौते का ही नतीजा है. लेकिन 24 फ़रवरी 2022 को यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद यह स्थिति बदल गई. यूरोप में एक बार फिर युद्ध की वापसी हो चुकी थी. हालाँकि, यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं है लेकिन रूसी हमले ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि क्या पश्चिमी सैन्य गठबंधन अपनी रक्षा कर सकता है? नाटो कितना मज़बूत है? ख़ासकर यूरोपीय सदस्यों में तो कुछ क
मजोरियां साफ़ दिखती हैं. यूरोप की 90 फ़ीसदी सुरक्षा अमेरिका के भरोसे है. 27 सेनाएं मिलकर भी मध्यम आकार के एक मिशन को नहीं संभाल सकतीं. इस डाक्यूमेंट्री में हम उन लोगों से बात करेंगे जो नाटो को अच्छी तरह से जानते हैं. हम, म्यूनिख फ़्रैंकफ़र्ट बर्लिन की सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते. हमारे बस में नहीं है. दूसरे विश्व युद्ध के परिणामों के बाद स्थापित नाटो ने समय के साथ अकल्पनीय उपलब्धि हासिल की है. इसने पुराने दुश्मनों को सहयोगी बना लिया है. मुझे यह बड़ा ही रोमांचक लगता है. दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिक
ा और इंग्लैंड के ख़िलाफ़ लड़ने वाले जर्मन अधिकारी भी नाटो के कमांड ढांचे का हिस्सा थे. अपने गठन के 75 साल बाद, नाटो का महत्व अब शीत-युद्ध के वक्त से भी ज़्यादा बढ़ गया है. दुनियाभर में सैन्य शक्ति बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है. और सिर्फ़ रूस ही नहीं बल्कि चीन और मध्य एशिया में भी यही हो रहा है. मुझे लगता है कि सऊदी अरब 2010 से अब तक अपनी थल सेना की क्षमता को तीन गुना बढ़ा चुका है. और नाटो का क्या? हमने वास्तविकता को नज़रअंदाज़ किया और अब उसके नतीजे भुगत रहे हैं. यह बेल्जियम का मोन्स है. एक लाख की आबादी वा
ला यह शहर बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स से 70 किलोमीटर दूर है. यहां है दुनिया की सबसे ज़्यादा सुरक्षित इमारतों में से एक नाटो का सैन्य मुख्यालय यानी "सुप्रीम हेडक्वार्टर्स अलाइड पावर्स यूरोप" जिसे शॉर्ट में 'शेप' भी कहा जाता है. सदस्य देशों की सीमाओं पर हो रही हलचल से लेकर किसी संदिग्ध गतिविधि तक यही सुरक्षा से जुड़ी सूचनाओं का केंद्र है. एडमिरल रॉब बाउर नाटो के मिलिट्री कमिटी के प्रमुख हैं. वे राजनीति दुनिया और सेना के बीच एक कड़ी की तरह हैं. गठबंधन के 75 वर्ष हो चुके हैं और हमारी संख्या अब 12 सदस
्यों से बढ़कर लगभग 32 हो चुकी है. तो मैं यह कहूंगा कि यह अपने आप में इस गठबंधन के महत्व को दर्शाता है वरना इतने सारे देश गठबंधन के सदस्य नहीं होते. दूसरे विश्व युद्ध के बाद इसकी स्थापना के समय 12 देश नाटो के सदस्य थे. शीत युद्ध के समय इसका उद्देश्य कम्युनिज़्म सोवियत संघ और ईस्टर्न ब्लॉक के बढ़ते प्रभावों को रोकना था. बाद में, ईस्टर्न ब्लॉक के देशों सहित 20 और देशों ने नाटो की सदस्यता ली. आज इस गठबंधन का विस्तार उत्तर में आर्कटिक सागर से लेकर दक्षिण-पूर्व में सीरिया से लगने वाली तुर्की की सीमा तक
है. साथ ही रूस की सीमा से लगे बाल्टिक देशों से लेकर अटलांटिक पार अमेरिका और कनाडा तक इसका विस्तार है. यह करोड़ों लोगों की सुरक्षा करने वाला विश्व का सबसे बड़ा सैन्य गठबंधन है. हालांकि अभी तक नाटो की अपनी कोई सेना नहीं है. ये कुछ इस तरह से बनाया गया है कि नाटो के मूल रूप से तीन अंग हैं. ये कमांड और कंट्रोल है. यह मानक पैमाना है और सैन्य अभ्यास. इसकी सैन्य टुकड़ियां आती हैं 31 संप्रभु सदस्य देशों से जो जल्द ही 32 होने वाले हैं. जब सदस्य देश सैन्य अभ्यासों अभियानों या संयुक्त रक्षा के लिए नाटो को अपन
ी सेना दे देते हैं तो उसके बाद "सुप्रीम अलाइड कमांडर यूरोप" जनरल कावोली उन बलों के प्रमुख हो जाते हैं. फिर उन्हें जो मिशन दिया जाता है वह इन सेनाओं को वहां भेज सकते हैं. सैन्य संघर्ष के भयानक त्रासद परिणामों के बाद ही नाटो की स्थापना की गई थी. मुझे लगता है कि ये समझना ज़रूरी है कि दूसरे विश्व युद्ध के नतीजों को देखकर ही नाटो को खड़ा किया गया था. यानी इस फैसले में जो भी लोग शामिल थे, उन पर युद्ध और तबाही का साया मंडरा रहा था. नाटो के शुरुआती इतिहास में शामिल ज़्यादातर लोगों जिनमें लगभग सभी पुरुष है
ं उन्होंने पहला या दूसरा विश्व युद्ध लड़ा था या उनकी इसमें एक भूमिका थी. नाटो की स्थापना का एक मुख्य उद्देश्य युद्ध होने से रोकना था. उस वक्त ज़्यादातर लोगों का मानना था कि नाटो का गठन करके वो यूरोप में युद्ध की वापसी रोक रहे हैं. जब यह गठबंधन बना तब इसका कोई सैन्य ढांचा या कमांड सेंटर नहीं था. पहली और सबसे ज़रूरी बात कि नाटो एक वादा था. मुझे लगता है कि यह समझना ज़रूरी है कि 1949 में समझौते पर हस्ताक्षर के वक़्त यह सिर्फ़ एक सांकेतिक समझौता था. यह एक तरह से राजनीतिक प्रतीक था कि 12 देश एक-दूसरे की रक
्षा करेंगे और साथ काम करेंगे. 4 अप्रैल 1949 को 12 देशों की सरकारों के प्रमुखों वरिष्ठ कूटनीतिज्ञों और विदेश मंत्रियों ने वॉशिंगटन में "नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी" पर हस्ताक्षर किए. उस समझौते में सिर्फ़ 14 आर्टिकल थे. हमारे लिए अगर आज कुछ सुनिश्चित है अगर भविष्य में कुछ अनिवार्य है तो वो है दुनिया भर के लोगों में हमारी स्वतंत्रता और शांति की इच्छा. कुछ ही महीनों बाद अगस्त 1949 में सोवियत संघ ने अपने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया था. परमाणु हथियारों पर अमेरिका का एकाधिकार ख़त्म हो चुका था, और हथियारों
की होड़ शुरू हो चुकी थी. सोवियत संघ पश्चिम का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया. सब जानते हैं कि किसी भी तरह के उकसावे से अगर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ तो दुनिया ख़त्म हो जाएगी. लेकिन उस वक़्त नाटो के संस्थापकों को सिर्फ़ सोवियत संघ के सीधे हमले से ही डर नहीं था. इसे ही कनाडा के इतिहासकार टिमथी एंड्रूज़ सेल "लोकतंत्र की कमज़ोरी" कहते हैं. 1940 के दशक के अंत में चिंता का मुख्य विषय यह था कि दूसरे विश्व युद्ध के विनाशकारी और दर्दनाक नतीजे झेलने के बाद यूरोप के लोग अपने देश और राष्ट्रीय हितों के लिए भविष्य म
ें कोई भी युद्ध नहीं लड़ना चाहते थे. चिंता तो इस बात की थी कि अगर सोवियत संघ किसी तरह अपनी सेना को संगठित व मज़बूत कर यूरोप के किसी हिस्से पर चढ़ाई कर दे तो शायद वहां की जनता अपने नेताओं से सोवियत संघ की सभी मांगें मान लेने के लिए कहेगी. दूसरे विश्व युद्ध में लाखों लोगों की मौत जैसा खतरा अब भी मंडरा रहा था. और इतिहासकार कहते हैं कि लोकतांत्रिक देशों को हर हाल में शांति बनाए रखने के लिए ब्लैकमेलिंग झेलनी पड़ती है. समझौता करना पड़ता है और दबाव के आगे झुकना पड़ता है. नाटो जैसे गठबंधन का सदस्य होने के बाद
उन देशों के नेताओं को लगा कि वो अब अपने लोगों से कह सकते हैं कि अब वो एक बड़े धड़े का हिस्सा हैं. और युद्ध के नतीजों के बाद जब नेताओं को लगा कि उनके लोग अब लड़ना नहीं चाहते तो सामूहिक शक्ति का गठन ज़रूरी हो गया था. आज नाटो की स्थापना के 75 वर्षों के बाद एक बार फिर यूरोप में युद्ध लड़ा जा रहा है. विश्व के सबसे बड़े सैन्य गठबंधन को ख़ुद से पूछना पड़ रहा है कि बुरी से बुरी स्थिति में वह ख़ुद को कैसे बचाएगा? सभी देशों को अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी. ये आर्टिकल तीन में है. और हमने काफ़ी सालों तक उसे न
ज़रअंदाज़ ही किया है. उदाहरण के लिए ब्रिटेन ने अपनी थल सेना काफ़ी कम कर ली है. जर्मनी के पास थल सेना है लेकिन उसकी तुलना दूसरी सेनाओं से नहीं की जा सकती. फ्रांस के पास परमाणु हथियार हैं लेकिन वो रूस के परमाणु ज़खीरों के सामने कुछ भी नहीं हैं. शीत युद्ध के बाद सामूहिक सुरक्षा पर ज़ोर कम होता चला गया. नाटो का ध्यान अफ़ग़ानिस्तान और लीबिया में अभियानों और तथाकथित 'आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई' पर चला गया. हमें विदेशी मिशन पर सेनाओं की छोटी-छोटी टुकड़ियों की ज़रूरत पड़ती थी. ये टुकड़ियां बेहद ख़ास मिशन पर विदेशों में
भेजी जाती थीं. संकट के समय जवाबी ऑपरेशन में हमारे पास समय होता है. हम तय करते हैं कि क्या हम अफ़ग़ानिस्तान जा रहे हैं? अगर हां, तो कब, कितनी सेना के साथ और कितने समय के लिए? लेकिन सामूहिक रक्षा के मामले में दुश्मन का हमला भी हो सकता है. फिर यही है कि या तो आप तैयार हैं या नहीं. गठबंधन की कमजोरियां अब दिखने लगी है. अब सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि नाटो अब 32 देशों का समूह हो गया है. इसका मतलब 32 संप्रभु राष्ट्र 32 फ़ौजें और बहुत बड़ी नौकरशाही. युद्ध के समय सैन्य टुकड़ियों की जल्द तैनाती कर पाना निर्णा
यक हो सकता है. लेकिन 'यूरोपीय संघ' और 'शेनगेन' क्षेत्र में आवाजाही की आजादी होने के बावजूद यूरोप में यह बड़ी चुनौती है. साल 2014 से 2017 तक बेन होजेज़ यूरोप में अमेरिकी सेना के कमांडिंग जनरल थे. मैंने कहा आप जानते हैं कि आप सेब से भरा एक ट्रक पोलैंड से पुर्तगाल तक ले जा सकते हैं. आपको रोका नहीं जाएगा. आप पूरा सफर तय कर सकते हैं लेकिन मैं, मिलिट्री के साथ वैसा नहीं कर सकता मेरे पास बाल्टिक देशों और पोलैंड में तैनात सेना की छोटी टुकड़ी थी. मैंने देखा कि मेरी हेलीकॉप्टर यूनिट की रख-रखाव से जुड़ी तैयार
ियों का स्तर नीचे जा रहा था. और मैंने आंसबाख के अपने एविएशन ब्रिगेड कमांडर से पूछा कि उनकी मरम्मत क्यों नहीं की जा रही है? उसमें इतना समय क्यों लग रहा है? और उन्होंने कहा कि सर, हम मेंटिनेंस के लिए जरूरी पुर्ज़े आंसबाख से लिएलवार्दे नहीं ले जा सकते. इसमें हफ़्तों लगते हैं मैंने कहा 'क्या'? मुझे तो पता ही नहीं था. मुझे तो लगा कि आंसबाख से लिएलवार्दे जाना उतना ही आसान होगा जैसा कि अमेरिका में इंटरस्टेट 95 से फ्लोरिडा और वर्जीनिया के बीच का सफ़र. मेरे कहने का मतलब है कि ये सभी नाटो देश हैं यूरोपियन य
ूनियन के देश हैं. फिर दिक़्क़त क्या है? और तब मुझे यह समझ में आया कि परेशानी सैन्य सामग्री को सीमा पार ले जाने में है. और आपको उसके लिए मंज़ूरी चाहिए. नाटो को इस समस्या की जानकारी है. 2021 से दक्षिणी जर्मन शहर उल्म स्थित 'जॉइंट सपोर्ट एंड एनेब्लिंग कमांड' या JSEC अस्तित्व में है. JSEC का मुख्य उद्देश्य सेना की तैनाती में आने वाली ब्यूरोक्रेटिक बाधाओं को दूर करना है. इसके कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल आलेक्ज़ांडर ज़ोलफ्रांक हैं. हमारा एक संघीय ढाँचा है. इसका मतलब है कि आपको अलग-अलग सरकारों के साथ मिलकर
काम करना है. कुछ फॉर्म होते हैं जिन्हें ख़ास तरीक़े से भरा जाता है. वो भी हर देश में अलग-अलग तरीक़ों से. हम उस पर काम कर रहे हैं. फिर आपको कस्टम नियमों बीमारियों की रोकथाम के लिए दवाओं जैसी चीज़ों का ध्यान रखना होता है. जर्मनी में टैंकों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए उन्हें तुरंत ट्रेन में चढ़ाना पड़ता है. या उन्हें बड़े ट्रक पर लादना पड़ता है. हमारे पास टैंकों को ढोनेवाले ऐसे ट्रक कम हैं. इसलिए आपको डॉयचे बान की ज़रूरत पड़ती है. लेकिन शांति के समय डॉयचे बान काम नहीं आती उन्हें इसे बंद नहीं कर
ना चाहिए और टैंक ढोने चाहिए. तो इन सब प्रक्रियाओं से होकर गुज़रना ही थका देने वाला काम है. ये इतना मज़ेदार नहीं है. यह दक्षिणी-पूर्वी जर्मनी में बवेरिया का ओबरफाल्स बैरक है. नाटो के आदेश पर यहाँ के सैनिक कल लिथुआनिया जा रहे हैं. तो जवानों, बस एक और लोडिंग और हम लिथुआनिया के लिए रवाना हो जाएंगे. क्या हमें अपनी तैनाती को लेकर कोई शक़ है? टैंकों को ट्रेन से लिथुआनिया ले जाया जाएगा. रेलवे स्टेशन तक की यात्रा में भी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना होता है. रास्ता फ़्री वे से होकर जाता है. बैरक से स्टेशन त
क के लिए एक खास वक्त तय किया गया है. भीड़ होने के पहले ही सब काम पूरा करना होता है. हाल के दशकों में शांतिकाल के दौरान पूरे यूरोप में कई पुलों का निर्माण किया गया है. लेकिन उस वक़्त इस बात का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा गया कि वे पुल भारी मिलिट्री वाहनों का भार उठा सकेंगे या नहीं. टैंकों को एक-एक कर के ही यह नदी पार करनी पड़ती है. हमारी उम्र के सभी लोगों को याद है और पश्चिमी जर्मनी में अब भी आप पीला निशान देख सकते हैं जिस पर लिखा है कि इस पुल से कितने भारी वाहन गुज़र सकते हैं. मेरा मतलब है कि आपको
पश्चिमी जर्मनी में यह निशान हर जगह दिखेंगे. आपको पूर्व की तरफ जाने पर ऐसा नहीं दिखता. लिथुआनिया के पूर्वी छोर पर भेजी जाने वाली नाटो यूनिट अपना सामान ख़ुद ले जाती हैं. इस तरह प्रक्रियाओं और गतिविधियों को सुचारु रूप से चलाया जा सकता है. मुझे अपनी गाड़ी के बारे में पता है. मुझे पता है कि इसमें क्या ख़राबी है और क्या नहीं. और हमारे मेंटीनेंस पार्टनर जब चाहें स्पेयर पार्ट भेज सकते हैं. पिछले रोटेशन वाले टैंक हमारे दूसरे साथियों के हैं. यह आपकी अपनी कार जैसा है. जिसे सिर्फ़ आप ही ड्राइव करते हैं. किसी और
के साथ उसे यूं ही बदल नहीं सकते. JSEC का उद्देश्य यूरोप के सीमारहित 'शेनगेन' इलाके में एक साझा सैन्य क्षेत्र तैयार करना है. नाटो चाहता है कि भविष्य में उसके पास दस दिनों के भीतर एक लाख सैनिकों की तैनाती की क्षमता हो. फ़िलहाल इसके आधे से भी कम की तैनाती में उसे 15 दिन लग जाते हैं. और यहां सिर्फ़ सैनिकों की नहीं है. हम इसे हाल ही में यूक्रेन युद्ध में देख चुके हैं. एक ज़मीनी लड़ाई में काफ़ी संसाधनों की खपत होती है. यूक्रेन समर्थकों को पर्याप्त मात्रा में गोला-बारूद मुहैया करवाने में दिक़्क़त आ रही है
. उनके भंडार ख़ाली हो चुके हैं और वो सब कुछ इस्तेमाल कर चुके हैं. एक आकलन के मुताबिक़ रूस-यूक्रेन युद्ध में, हर दिन तोपों के औसतन 50 हज़ार राउंड फायर किए जा रहे हैं. इस सारी युद्ध सामग्री का उत्पादन करना होगा. सब तुरंत उपलब्ध होना चाहिए. इसलिए जर्मन गोला-बारूद डच बैरल में भी फिट होना चाहिए. यह सही तरीक़े से यूरोप के हथियार गोदामों में पहुँचने चाहिए. उम्मीद करते हैं कि हमें इसकी ज़रूरत ही ना पड़े लेकिन यह भरोसेमंद प्रतिरोध का हिस्सा है. सीधे हमले के वक़्त पर्याप्त गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए भी JSEC
जिम्मेदार है. जनरल ज़ोलफ्रांक और उनकी अंतरराष्ट्रीय टीम ऐसी घटनाओं की तैयारी के लिए सिम्युलेशन का सहारा लेती है. वहां पर सैनिकों के पास कितने हथियार है? किस चीज़ की कमी हैं? कितने ईंधन की ज़रूरत है? यातायात के लिए कौन सी सड़कों और पुलों का उपयोग किया जा सकता है और टीम में कहाँ पर सुधार की ज़रूरत है? हथियारों को रखने के लिए सबसे रणनीतिक जगह कौन सी है? यहाँ JSEC मुख्यालय में संभावित घटनाओं से निपटने की तैयारी की जाती है. और सबसे ज़रूरी यहाँ पर जो भी योजना बनाई जाए उसे तुरंत लागू करना संभव होना चाहिए.
प्रतिरोध तभी काम करता है जब हमारी योजनाएं और तैयारियां चाक-चौबंद हों. दूसरे शब्दों में वह कारगर होना चाहिए जब हमें आत्मरक्षा की ज़रूरत हो. तभी स्पष्ट संदेश भेजा जा सकता है जो फिलहाल रूस के लिए है कि कि 'ख़तरा मोल मत लो'. हमारे उद्देश्य की पूर्ति जैसे युद्ध रोकने के लिए, हमें शांतिकाल में बड़ी सैन्य टुकड़ियों की फिर से तैनाती के प्रबंधन में सक्षम होना होगा ताकि पहली गोली दागे जाने से पहले ही हम दुश्मनों को बता सकें कि वह हार जाएंगे. लिथुआनिया के रास्ते में बवेरिया से चले सैनिकों के लिए पहले तो सब य
ोजना के मुताबिक़ ही होता है. लोडिंग पूरी हो चुकी है. लेकिन तभी अचानक सफ़र रुक जाता है. रेल हड़ताल की वजह से ट्रेन कुछ ही दूरी तय कर पाई है. तीन दिन बाद भी वे बवेरिया में ही हैं. यह ब्रसेल्स स्थित नाटो का मुख्यालय है, गठबंधन का राजनीतिक केंद्र. नाटो के किसी सदस्य देश पर हमले के वक़्त अनुच्छेद 5 को लागू करने से जुड़ा फैसला यहीं लिया जाता है. नाटो की प्रक्रियाओं में वॉशिंगटन संधि की देन आर्टिकल 5 सबसे मशहूर है. किसी एक पर सशस्त्र हमले का मतलब सभी पर सशस्त्र हमला माना जाता है. आर्टिकल 5 के बारे में सभी
जानते हैं. लेकिन ये किसी लेज़र बीम जैसा नहीं है कि किसी स्टोर में आपके जाते ही सभी दरवाज़े अपने-आप खुल जाते हैं. आर्टिकल 5 को लेकर ऐसा कोई ऑटोमेटिक प्रावधान नहीं है. सभी नाटो सदस्य देशों के बीच आधिकारिक रूप से विचार-विमर्श और सहमति के बाद ही आर्टिकल 5 लागू किया जाता है. नाटो की तैनाती का फैसला सभी सदस्यों की सहमति के बाद ही होता है. जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों में, सैन्य कार्रवाईयों के लिए संसद की भी मंज़ूरी लेनी होती है. आपको याद है कि पिछले साल पोलैंड में एक मिसाइल गिरी थी और दो लोग मारे गए थे.
अगर यह प्रक्रिया ऑटोमैटिक होती तो कोई कह सकता था कि अरे रूसी मिसाइल पोलैंड में गिरी है यानी आर्टिकल 5. बिल्कुल इसमें शामिल लोग इतने समझदार तो ज़रूर हैं जो यह तो कह ही सकते हैं कि एक मिनट रुकिए चलिए जांच कर लें कि आखिर हुआ क्या है. शुरुआत में किसी एक सदस्य पर हमले की स्थिति में उसे बचाने के लिए समूह के सभी सदस्यों को लड़ना होगा ऐसा इंग्लैंड फ्रांस और कनाडा ने सोचा था. वो आर्टिकल 5 से यही चाहते थे. लेकिन अमेरिका ने ऐसा नहीं माना. क्योंकि इससे युद्ध की घोषणा को मंजूरी देने का अमेरिकी संसद का अधिकार
छिन जाता. समस्या यह है कि समूह में जितने ज़्यादा देश होंगे, उतने ही उनके निजी हित होंगे. किसी एक की असहमति और आर्टिकल 5 लागू नहीं होगा. हमारे 32 लाख सैनिकों को पता होना चाहिए कि उन्हें क्या करना है? इसलिए 'नहीं' कहना काफ़ी नहीं है. और युद्ध में संकट में या हमले की स्थिति में आप मना तो कर सकते हैं लेकिन हम पर हमला तो हुआ ना. इसीलिए हमें इसका हल चाहिए. तो, अगर कोई देश 'नहीं' कहता है तो हम उससे एक वैकल्पिक 'हां' की उम्मीद करते है. नाटो के सदस्य किसी मिशन से अलग रह सकते हैं. इसे कंस्ट्रक्टिव एबस्टेंश
न कहा जाता है. इसका मतलब है कि कुछ देशों की सहमति ना होने के बावजूद नाटो की तैनाती हो सकती है. लेकिन 'नकारात्मक वोट' समस्या बन सकती है. हमले की स्थिति में, अगर कोई राष्ट्र 'आर्टिकल 5' को नहीं मानता है तो दूसरे राष्ट्र भी बहुपक्षीय रास्ता अपना सकते हैं. लेकिन यह नाटो के ढांचे के बाहर होगा तो यह समस्या होगी. इसलिए नाटो की स्थापना के मूल विचार समुदाय और एकजुटता से जुड़े हुए हैं. 1950 और 60 के दशक में नाटो देशों के नागरिकों के बीच आपसी मेलजोल बढ़ाने की वास्तविक कोशिश की गई थी और इसके लिए गठबंधन में एक
जुटता के लिए शैक्षिक आदान-प्रदान स्टडी टूर व पेशेवर संस्थाओं की भूमिका पर ज़ोर दिया गया था. उस वक़्त कई अमेरिकी अधिकारियों ने सिर्फ़ नेताओं के बीच ही नहीं बल्कि लोगों के बीच भी आपसी सम्बन्ध मज़बूत करने की दिशा में काफी सोच-विचार किया. और ऐसे आदान-प्रदान किसी एक देश के ख़ास रिवाजों को ध्यान में रखकर शुरू हुए. दूध मक्खन अंडे और चीज़. ख़ास तरीकों और हुनर के मेल से बनाई जाने वाली पोन-लेवेक्या और कैमोमबेयर जैसी चीज़ बनाने वाले खेतिहरों चीज़ निर्माता इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी साझा करते हैं. इस तरह की आर्काइव स
ामग्री नाटो के शुरुआती सालों को दिखाती है वैश्वीकरण के पहले की दुनिया पर आधारित शैक्षणिक फ़िल्म जिसे नाटो के प्रेस ऑफिस ने बनाया है. तब हथियारों या सैन्य युद्ध कौशल पर ज़ोर नहीं था. इसके बजाए, सदस्य देश अपनी परंपरा और संस्कृति के आधार पर गठबंधन से जुड़े थे. यह फ़िल्में आम लोगों के लिए नहीं बनाई गई थीं. यह सैनिकों को दूसरे देश में पोस्टिंग से पहले दिखाई जाती थीं. यह उनके तैनाती से पहले की ट्रेनिंग का हिस्सा थीं. यह जानने के लिए कि वहां के लोग कैसे हैं? और हमें वहाँ क्या मिलेगा? और मुझे यह दिलचस्प लगत
ा है. वहां पर जर्मन ऑफिसर भी थे, जो नाटो के कमांड ढांचे का हिस्सा थे. वे दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ लड़े थे. तो इन्होंने कहीं ना कहीं, एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी और शीत युद्ध के दौरान इन्हीं लोगों ने मिलकर इस गठबंधन को खड़ा किया. फ़ेडरल जर्मनी में नाटो के कई बेस थे और उनमें से एक अंतरराष्ट्रीय जेट पायलट स्कूल था जहां इंग्लैंड पश्चिमी जर्मनी अमेरिका फ्रांस और इटली के वायुसैनिक एक साथ काम करते और ट्रेनिंग लेते थे. वर्ष 1955 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के 10 साल बाद 'फ़ेडर
ल रिपब्लिक ऑफ़ जर्मनी' नाटो का हिस्सा बना. सामूहिक एकता पर ज़ोर के बावजूद सदस्यों में नाटो द्वारा छोड़े जाने का डर उतना ही पुराना है जितना कि गठबंधन ख़ुद. पूरे शीत युद्ध के दौरान नेताओं के मन में यह विचार थे कि युद्ध के समय कुछ सहयोगी देश उसमें हिस्सा नहीं लेंगे. क्या अमेरिका ख़ुद पर रूसी न्यूक्लियर मिसाइल दागे जाने के बाद पश्चिमी यूरोप की रक्षा करेगा? और 1950 के दशक के अंत से ही इस तरह के संतुलन बनाए रखना काफ़ी मुश्किल हो गया है. जिस साल पश्चिमी जर्मनी नाटो का सदस्य बना उसी साल चांसलर कॉनराड आडेनाउअ
र ने अपने अधिकारियों से क़ानूनी राय जाननी चाही. वह यह जानना चाहते थे कि आर्टिकल 5 कितना बाध्यकारी है और जर्मनी पर हमले की स्थिति में अमेरिका की क्या जवाबदेही होगी. वक़ीलों ने क्या कहा? जहां तक हमले का सवाल है तो हमला हुआ है या नहीं किस तरह की और कितनी मदद अमेरिका करेगा ये पूरी तरह उसके अधिकार में है. इसका यह मतलब हुआ कि कोई भी देश यह तय करने के लिए आजाद है कि वह अपने सहयोगी के साथ खड़ा होगा या नहीं. पहली नज़र में आर्टिकल 5 आपको सोचने पर मजबूर करता है कि ओह अगर मैं किसी नाटो देश पर हमला करता हूँ तो
बाक़ी सभी 31 देश एकजुट होकर मुझ से भिड़ जाएंगे. लेकिन जब आप इसे विस्तार से पढ़ते हैं तो यह कहता है कि सभी नाटो सदस्य किसी दूसरे पर हुए हमले को ख़ुद पर हुआ हमला मानेंगे. लेकिन यह नहीं कहता कि ऐसे में वे टैंक और लड़ाकू विमान भेजेंगे. वो इतना ज़रूर कह सकते हैं कि, ठीक है इस हमले को मैं ख़ुद पर हुआ हमला मानता हूँ. लेकिन फिर भी मैं कुछ करूंगा नहीं. चांसलर कॉनराड आडेनाउअर आर्टिकल 5 के भरोसे नहीं रहना चाहते थे. वह किसी और तरह की गारंटी चाह रहे थे अमेरिकी सैनिकों की पश्चिमी जर्मनी की धरती पर तैनाती. आडेनाउअर
के लिए यही वास्तविक सुरक्षा थी. अमेरिकी ब्रिटिश और कनाडा के सुरक्षा बलों की यूरोप में मौजूदगी इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह आर्टिकल 5 या दूसरे सहयोगियों के लिए भी ट्रिपवायर जैसी थी जो यूरोपीय या ख़ासकर जर्मनी को बचाने आएंगे अगर कभी आक्रमण हुआ. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत था क्योंकि कोई भी अमेरिकी राजनेता अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों को युद्ध या किसी छोटे से विवाद में भी, पूरी अमेरिकी हिस्सेदारी के बिना भाग लेने की इजाज़त नहीं देंगे. यह लिथुआनिया में रुक्ला है. वर्ष 2017 से, कई देशों की सेना
एं यहाँ मौजूद हैं. वे नाटो के बहुराष्ट्रीय बैटल ग्रुप यानी युद्धक गुटों का हिस्सा हैं. 2014 में रूस के यूक्रेन से क्रीमिया को हथियाने के बाद, यह छोटे मोबाइल यूनिट नाटो के स्थाई कमांड के तहत गठित किए गए थे. वे एस्टोनिया लातविया लिथुआनिया और पोलैंड की सीमाओं से लगे नाटो के पूर्वी बॉर्डर पर तैनात हैं. इन सभी युद्धक गुटों में 1 हज़ार से 2 हज़ार सैनिक हैं. और वर्ष 2022 में रूस के यूक्रेन पर सीधे हमले के बाद से और भी बैटलग्रुप बनाए गए हैं जिन्हें स्लोवाकिया हंगरी रोमानिया और बुल्गारिया में तैनात किया गय
ा है. लिथुआनिया में सुवाल्की गैप यानी लिथुआनिया और पोलैंड बॉर्डर के पास 100 किलोमीटर में फैले कॉरिडोर में युद्धक गुटों की ज़िम्मेदारी जर्मनी पर है. नाटो को लगता है कि यही इलाका है जहां रूस हमला कर सकता है. कर्नल क्लाउस-पीटर बर्गर इस वक्त लिथुआनिया में तैनात जर्मन दस्ते के कमांड प्रमुख हैं. निष्पक्षता से कहूं तो रूस और बेलारूस के बल अब वैसे ताक़तवर नहीं हैं जैसा हमने उन्हें यूक्रेन युद्ध के पहले देखा था. काफ़ी बल यूक्रेन से हटाए और तैनात किए गए हैं. तो मतलब साफ़ है कि अब हमारे ऊपर कोई बड़ा खतरा नहीं
है. बवेरिया के बैरक से जर्मन सैनिक विमान से यहाँ पहुंचे हैं. हालांकि, उनके टैंकों का अभी कोई अता-पता नहीं है. शाम को एक परेड और झंडों का आदान-प्रदान है. यह सेनाओं की टुकड़ियों के स्थान परिवर्तन का प्रतीक है. कई लोग 6 महीने बाद घर जा रहे हैं तो कुछ के पास बहुत ज़रूरी काम है. उन्हें इस बात को साबित करना है कि नाटो लिथुआनिया को सशस्त्र युद्ध की स्थिति में अकेला नहीं छोड़ेगा. अगर लिथुआनिया पर हमला हुआ, तो केवल लिथुआनिया ही नहीं, वहां पर हमारे सिपाही भी तैनात हैं. और तब यह नहीं देखा जाएगा कि यह डच लोगो
ं की ज़मीन है या जर्मनी की. जिन पर हमला होगा वे हमारे सैनिक होंगे. इसी सिद्धांत पर कॉनराड आडेनाउअर भी भरोसा करते थे. सुरक्षा की गारंटी मशहूर 'आर्टिकल 5' भी नहीं देता लेकिन अंतरराष्ट्रीय सैन्य उपस्थिति से इसका भरोसा होता है. यहाँ पर मौजूद जर्मन बल किसी भी कार्रवाई के लिए तैयार हैं. लेकिन साथ ही वो लिथुआनिया के लोगों को ये भी जता रहे हैं देखिए, हम यहाँ पर आपके साथ खड़े हैं. कंधे से कंधा मिलाकर. हम यह नहीं भूल सकते कि शीत युद्ध के दौरान हमारी रक्षा करने वालों में सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं बल्कि अन्य सहयो
गी देश भी थे. आप कह सकते हैं हम उनका एहसान चुका रहे हैं. सुरक्षा और बचाव को लेकर हम अपने पिछले अनुभवों के सहारे दूसरों की मदद कर रहे हैं. हम यहां नाटो के पूर्वी छोर की रक्षा करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि लिथुआनिया और अन्य बाल्टिक देशों के हमारे साथी भी सुरक्षित हों. नाटो की रक्षा नीति ज़्यादा लोकप्रिय नहीं रही है. यूक्रेन में युद्ध से पहले, ब्रिटेन में नाटो की लोकप्रियता रेटिंग 59 प्रतिशत थी. वहीं जर्मनी में यह 54 प्रतिशत थी. और फ्रांस में यह सिर्फ़ 39 प्रतिशत. इससे भी ज़्यादा नाटकीय थे '
आर्टिकल 5' और इसके दायित्वों को लेकर हुए सर्वे के परिणाम. यूक्रेन में लड़ाई से पहले, सर्वे में शामिल केवल 32 प्रतिशत फ्रेंच लोग ही नाटो सदस्य रोमानिया पर रूसी हमले के संभावित स्थिति में रोमानिया को सैन्य सहायता दिए जाने के पक्ष में थे. और केवल 14 प्रतिशत जर्मन ही तुर्की पर रूसी हमले की स्थिति में नाटो सदस्य तुर्की के पक्ष में थे. लेकिन नाटो के लिए समर्थन में हमेशा उतार-चढाव आता रहा है. शीत युद्ध के समय भी. उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में, पश्चिमी जर्मनी में एक बड़ा शांति अभियान दिखा जिससे अन्य नाटो
देश सोचने लगे कि एक सहयोगी के तौर पर जर्मनी कितना भरोसेमंद है. जिन नेताओं ने नाटो की स्थापना की और उसके बाद जिन्होंने इसे चलाया वे अक्सर जर्मनी के बारे में पीठ पीछे बातें करते हैं और चिंता ये है कि जर्मनी का रवैया क्या रहेगा. इसके केवल दो ही रास्ते हो सकते हैं. शीत युद्ध के वक्त एक डर यह रहा कि जर्मनी ख़ुद को एक स्वतंत्र और ताक़तवर शक्ति के रूप में यूरोप में स्थापित करेगा और यह 20वीं शताब्दी के शुरुआती युग की वापसी होगी. यह डर 1950 और 1960 के दशक में हावी रहा. 1960 के दशक से एक बदलाव आया. एक डर औ
र चिंता कि जर्मनी को ताक़त हासिल करने को कोई चाहत ही नहीं है. यही वह वक्त था जब जर्मनी में परमाणु हथियारों के ख़िलाफ़, नाटो के ख़िलाफ़, और जर्मनी में तैनात अमेरिकी बलों के खिलाफ बड़े प्रदर्शन हुए थे. और वह सोच अब भी जर्मनी के कुछ लोगों में मौजूद है. मुझे लगता है कि जर्मनी में काफ़ी लोग वैचारिक राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक आरामदायक दायरे में खुशी से बने हुए हैं. उनका मत हैं कि सीरिया जॉर्जिया या यूक्रेन में रूस सही नहीं कर रहा है लेकिन उसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है. एकजुटता और समान नज़रिए की कमी.
साल 2019 में गठबंधन की 70वीं वर्षगांठ के मौक़े पर फ़्रांसीसी राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने तो आगे बढ़ कर नाटो को "दिमागी रूप से मृत" तक कह दिया था. फ्रांस की परेशानी ये है कि उसे नाटो से हमेशा ही ज़्यादा की चाहत रही है. माक्रों के बयान को उसी नज़रिए से समझना चाहिए. फ्रांस हमेशा से सहयोगियों को ज़्यादा करने के लिए कहता रहा है. माक्रों ने नाटो में पूरी तरह से साझी रणनीति की कमी की आलोचना की. लंबे समय तक, किसी भी विवाद को लेकर जर्मनी आँखों पर पट्टी बांधे रहा है. माक्रों यह बात समझ चुके हैं. यह बात पैसो
ं और सैनिकों की नहीं है. इसका मतलब यह पूछना भी है कि क्या आप युद्ध की कल्पना भी कर सकते हैं? क्योंकि अगर ऐसा नहीं है तो ऐसा होने पर आप बिल्कुल बेबस होंगे. तय समय से दो दिन बाद टैंक लिथुआनिया पहुंच गए. लेकिन बैरकों में पहुंचने से पहले एक और बाधा पार करनी थी. उनकी मंजिल से कुछ किलोमीटर पहले, टैंकों को दूसरी ट्रेन पर चढ़ाया जाना है. पूर्व में पटरियां अलग-अलग गेज की हैं. वे पश्चिम जैसी नहीं हैं. आपात स्थिति में, ट्रेन यहाँ पर जल्दी पहुँच जाती. हड़ताल भी नहीं होती, और जर्मन रेलवे उन्हें यहाँ पर समय से
पहुंचा देती. अगली सुबह से पहले तक टैंक अपने ठिकाने की ओर रवाना नहीं होंगे जहां वह अगले छह महीने तक तैनात रहेंगे. अंतिम कुछ किलोमीटर की दूरी वे ग्रामीण सड़कों से तय करते हैं. जल्द ही इस क्षेत्र में जर्मन किंडरगार्टन, स्कूल और सुपरमार्केट दिखने लगेंगे. क्योंकि साल 2027 से एक नई जर्मन ब्रिगेड स्थाई तौर पर लिथुआनिया में होगी. 5000 सैनिक और उनके परिवार यहाँ पर रहेंगे. यूक्रेन के बाद, किसी अन्य पूर्व सोवियत देश पर रूसी हमले की आशंका को देखते हुए यह नाटो की रक्षा रणनीति का हिस्सा है. बाल्टिक क्षेत्र विश
ेष रूप से चिंता का विषय है. यूक्रेन के उलट, यहाँ पर हमले का मतलब नाटो क्षेत्र पर सीधा हमला होगा. रूस और नाटो के बीच 'साइबर युद्ध' भी छिड़ा है. वर्ष 2023 में, वुल्कान फाइल्स लीक से रूसी सरकार के लिए काम कर रहे हैकिंग सेंटरों का पता चला. इससे पता चला कि रूस किस तरह पश्चिम को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा था. इस पर नाटो की प्रतिक्रिया, रूसी बॉर्डर के नज़दीक एस्टोनिया की राजधानी टालिन में देखी जा सकती है. यह "कोऑपरेटिव साइबर डिफेन्स सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस" है. नाटो ने साइबर हमलों के महत्व और ज़रूरत को समझते
हुए साल 2021 में यह घोषणा की कि कुछ मामलों में नाटो राष्ट्रों पर साइबर हमलों से आर्टिकल 5 के तहत निपटा जाएगा. इसका मतलब है सामूहिक सुरक्षा और प्रतिक्रिया सिर्फ़ साइबर स्पेस तक ही सीमित नहीं रहेगी. आपात स्थिति से निपटने के लिए गठबंधन के सर्वश्रेष्ठ साइबर प्रोफ़ेशनल यहां नियमित तौर पर मिलते हैं और वार्षिक 'लॉक्ड शील्ड्स' प्रक्रिया के तहत एक काल्पनिक देश को साइबर हमले से बचाया जाता है. तो आप इसे हर साल आयोजित होने वाला साइबर डिफेंडर्स का वर्ल्ड चैंपियनशिप या ओलंपिक्स कह सकते हैं. और इसका उद्देश्य एक
ऐसा बहुराष्ट्रीय वातावरण तैयार करना है, जहां जटिल और अत्याधुनिक लेकिन नकली माहौल का इस्तेमाल असल स्थिति की तरह किया जाता है जहां एक राष्ट्र पर साइबर हमला हुआ हो. एक अन्य वार्षिक आयोजन "क्रॉस्ड स्वोर्ड्स" साल 2023 के दिसम्बर में हुआ. इसमें जवाबी हमले के साथ खतरे से निपटना शामिल था. इसमें भाग लेने वालों को एक पावर प्लांट ठप करना था निगरानी कैमरों को हैक करना था और रेल नेटवर्क बंद करना था. अंत में सभी हैक किए गए सर्वर को पॉइंट दिए गए और अंत में एक विजेता घोषित किया गया. सिम्युलेशन यानी नकली प्रक्र
िया में यूक्रेनी विशेषज्ञ भी शामिल हुए थे. इस बीच, दक्षिण दिशा में चंद हज़ार किलोमीटर की दूरी पर रूसी हैकरों ने यूक्रेनी टेलीफोन नेटवर्क को कई दिनों तक बंद कर दिया था. सोवियत संघ के टूटने के बाद पूर्वी यूरोपीय देशों ने ईस्टर्न ब्लॉक छोड़कर धीरे-धीरे नाटो ज्वाइन कर लिया. साल 1999 में, पोलैंड, चेक रिपब्लिक और हंगरी इसके सदस्य बने. पांच साल बाद, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, बुल्गारिया, रोमानिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया भी साथ आ गए. अल्बानिया और क्रोएशिया साल 2009 में जुड़े. 2017 में मोंटेनीग्रो आय
ा. वहीं यूक्रेन युद्ध के पहले, साल 2020 में नॉर्थ मेसेडोनिया नाटो की सदस्यता लेने वाला आख़िरी देश बना. ऐसा क्यों है कि एस्टोनिया लातविया और लिथुआनिया जैसे पूर्व सोवियत गणराज्य, या 'वारशॉ पैक्ट' के पूर्व सदस्य जैसे "पोलैंड" जल्द-से जल्द नाटो ज्वाइन करना चाहते हैं. यूक्रेन अब यह क्यों चाहता है, क्योंकि वो जानते हैं कि रूसी नियंत्रण के अधीन रहना कैसा होता है. कुछ लोगों का मानना है कि रूस की तरफ़ नाटो का विस्तार कर हम एक तरह से अतिक्रमण कर रहे हैं. मानो हम रूस को धमकी दे रहे हैं. मैं आपसे यह कह सकता
हूँ क्योंकि मैंने जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश प्रशासन में काम किया है जब "वारशॉ पैक्ट" टूटा और सोवियत संघ बिखरा, उस वक़्त मध्य और पूर्वी यूरोपीय देश सदस्य बनने के लिए नाटो का दरवाज़ा खटखटा रहे थे. वे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही सोवियत संघ के नियंत्रण में थे. वे स्वतंत्र होना चाहते थे और अपने ही जैसे पश्चिमी देशों के साथ होना चाहते थे. हमने नाटो की सदस्यता के लिए कोई अभियान नहीं चलाया. जिन देशों ने सदस्यता ली उसकी शुरुआत उन्होंने ही की. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के लिए, नाटो का पूर्व की ओर विस
्तार खतरा और वादा खिलाफी दोनों है. पुतिन की नज़रों में यह वादा खिलाफी दूसरे देशों पर रूसी हमले को जायज़ बनाती है. उन्होंने यूक्रेन पर रूसी हमले के तीन दिन पहले राष्ट्र को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट रूप से कहा था. कीव ने काफ़ी समय पहले नाटो से जुड़ने की रणनीतिक सोच स्पष्ट कर दी थी. हर एक देश को अपनी सुरक्षा व्यवस्था चुनने और किसी सैन्य गठबंधन से जुड़ने का हक़ है. लेकिन उससे किसी और देश को ख़तरा नहीं होना चाहिए और यूक्रेन का नाटो से जुड़ना सीधे तौर पर रूस के लिए ख़तरा है. वो चाहते हैं कि हम मान लें
कि रूस के लिए कोई ख़तरा नहीं है. लेकिन हम ऐसे लफ्ज़ों की क़ीमत जानते हैं. साल 1990 में जब जर्मन एकीकरण की बात चल रही थी तब अमेरिका ने सोवियत नेतृत्व से वादा किया था कि नाटो का अधिकार क्षेत्र या सैन्य उपस्थिति पूर्व की ओर एक इंच भी नहीं बढ़ेगी. और यह भी कि जर्मन एकीकरण का मतलब नाटो का पूर्व की ओर विस्तार नहीं होगा. यह कहा गया था. पूर्व की ओर एक इंच भी नहीं. नाटो ने रूस से यह वादा किया था जिसे बहुत बार दोहराया जा चुका है. तो क्या पश्चिम ने रूस को धोखा दिया? इतिहासकार, मैरी ई. सरोट ने अपने अकादमिक
जीवन का ज़्यादातर वक्त इसी सवाल पर लगाया है. उन्होंने 100 से ज़्यादा इंटरव्यू किए, अनगिनत ट्रांसक्रिप्ट, ख़तों और दस्तावेज़ों को खंगाला और आख़िर में उन्हें स्पष्ट जवाब मिल गया. मैं चाहूंगी कि रूसी हथियार डाल दें और अपने घर वापस चले जाएं. मैं इसे मुमकिन नहीं बना सकती. लेकिन एक ख़ास नज़रिए से पुतिन इतिहास की आड़ में अपनी लड़ाई को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं. और मैं एक इतिहासकार हूँ. मैं अपने तरीक़े से जो यूक्रेनियों के प्रयास की तुलना में बहुत छोटा है. लेकिन मैं अपने छोटे स्तर पर ही असलियत को गंभ
ीरता और साबित किए जा सकने वाले रूप में पेश करके पुतिन से वह हथियार छीन सकती हूं. कहानी बर्लिन की दीवार के गिरने के तुरंत बाद शुरू होती है. जर्मनी एकीकरण के कगार पर था. लेकिन एक चुनौती थी. जर्मनी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद बिना शर्त हथियार डाल दिए थे. तो इस तरह चार विजेताओं अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और सोवियत संघ के पास अविवादित रूप से विभाजित जर्मनी और ख़ासकर विभाजित बर्लिन पर क़ानूनी अधिकार थे. तो जर्मनी को एक करने के लिए इन चारों को वो अधिकार त्यागने पड़े. तीन पश्चिमी विजेताओं ने आपस में ही इस
बात का आकलन किया कि चौथी शक्ति यानी रूस की मांग क्या होगी? सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचोव जर्मनी के एकीकरण के बदले में क्या चाहेंगे? पश्चिमी जर्मनी के पूर्व विदेश मंत्री हांस-डीट्रिष गेनशर इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि गोर्बाचोव यह सुनिश्चित करना चाहेंगे कि पोलैंड और हंगरी नाटो में शामिल ना हों. गेनशर के ख़्याल से यह सही था और उनका मानना था कि पश्चिमी देशों अमेरिका ब्रिटेन फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी को गोर्बाचोव को यह प्रस्ताव देना चाहिए. गेनशर ने अमेरिकी विदेश मंत्री जेम्स बेकर के सामन
े यह प्रस्ताव रखा और उन्हें भी यह ठीक लगा. 9 फ़रवरी, 1990 को बेकर, क्रेमलिन में गोर्बाचोव से मिले. और मोटे तौर पर उनका कहना था कि कैसा रहे अगर आप जर्मनी पर अपने अधिकार वाले हिस्से को छोड़ दें और हम कहें कि नाटो व उसका अधिकार क्षेत्र पूर्व की ओर नहीं एक इंच भी नहीं खिसकेगा. मीटिंग के बाद बेकर वापस अपने बॉस और अच्छे दोस्त राष्ट्रपति जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश को जानकारी देने अमेरिका चले गए. हालांकि, बुश को यह प्रस्ताव कुछ ख़ास पसंद नहीं आया. बुश ने कहा, जिम, मैं तुमसे बहुत निराश हूं. मुझे नहीं लगता कि ना
टो के भविष्य पर हमें सौदेबाज़ी करनी चाहिए. मुझे लगता है कि नाटो ने अभी-अभी शीत युद्ध जीता है. मेरे ख़्याल है कि नाटो जैसा है, बहुत अच्छा है. तो हम ऐसा नहीं करेंगे और तुम्हें यह बात बतानी होगी. तो मैंने जो सबसे दिलचस्प चीज़ पता लगाई वो थी बेकर की चिट्ठी, जो उन्होंने फ़रवरी के अंत में पश्चिमी जर्मनी के विदेश मंत्रालय को लिखी थी. उन्होने लिखा था, मुझे माफ़ कीजिए मुझे आपसे ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मेरी वजह से भ्रम पैदा हुआ है. अब हम इसके बारे में बात नहीं करेंगे. और उसके बाद अमेरिका ने इस पर कभी सौदेबाज
़ी नहीं की. दो हफ़्ते बाद बुश ने पश्चिमी जर्मनी के चांसलर हेलमुट कोल और उनकी पत्नी को कैंप डेविड स्थित अमेरिकी राष्ट्रपति आवास पर आमंत्रित किया. बुश ने कोल से वही बातें दोहराई जो उन्होने जेम्स बेकर से कही थीं. हम नाटो के भविष्य को लेकर कोई सौदेबाज़ी नहीं करेंगे. चाहे कुछ भी हो जाए. यह सीधे उन्ही के शब्द थे. और इस पर कोल ने कहा कि, ठीक है लेकिन गोर्बाचोव इसके बदले कुछ और तो चाहेंगे ही. फिर कुछ सोचकर कोल ने कहा शायद वह पैसा भी हो सकता है. तो बुश ने उनसे कहा आप बहुत अमीर हैं. और बाद में रक्षा मंत्री
बॉब गेट्स जो इस घटना को नोट कर रहे थे, उन्होंने इसके बारे में अपने संस्मरण में लिखा, कि उस वक़्त, रणनीति साफ़ थी कि हम सोवियत को घूस देंगे. लेकिन वह धन होगा ना कि नाटो के विस्तार से जुड़े वादे. 12 सितम्बर, 1990 तक '2 प्लस 4' सौदेबाज़ी चलती रही. तब तक, जर्मन एकीकरण की राह में कोई रुकावट नहीं बची. और यह वाक्य कि एक इंच भी पूर्व की ओर नहीं बढ़ेंगे संधि में था ही नहीं. यह हम जर्मनों के लिए बहुत ही भावुक दिन है. हम जर्मन लोगों का एकीकरण चाहते हैं ताकि वे पूरे यूरोप की स्थिरता में अपना योगदान दे सकें. य
ह यूं ही लिया गया फ़ैसला नहीं था. प्रोफ़ेशनल सौदेबाज़ी हुई थी. वह ए टीम थी जैसा कि हम अमेरिका में कहते हैं. और अंत में, कॉन्ट्रैक्ट में यह साफ़ तौर पर लिखा हुआ था कि नाटो शीत युद्ध के मोर्चे पर भी अपना विस्तार कर सकता है. मुझे लगता है कि यह सबसे महत्वपूर्ण है. सोवियत संघ ने ना सिर्फ़ समझौते पर दस्तखत किए और उसकी पुष्टि की, बल्कि इसके एवज में करोड़ों के डॉयचमार्क चेक भी भुनाए. पुतिन उसका ज़िक्र नहीं करते हैं. वह सिर्फ़ शुरुआती सौदेबाज़ी की संभावनाओं के बारे में बात करते हैं. लेकिन हक़ीक़त को दरकिनार कर जा
ते हैं. कुछ ही महीनों बाद सोवियत संघ का विघटन हो गया. वारशॉ पैक्ट आधिकारिक रूप से भंग हो गया. क्रेमलिन में सोवियत का झंडा नीचे आ गया. नाटो और पश्चिम जीत चुके थे. अचानक एक प्रश्न उठा कि अब नाटो क्या करेगा? नाटो को बनाए रखने के कई कारण हैं. एक वजह यह है कि सिर्फ़ शीत युद्ध के ख़त्म हो जाने भर से ही वैश्विक राजनीतिक मुद्दे समाप्त नहीं हो गए थे. इस बात की कोई गारंटी नहीं थी सोवियत संघ और बाद में रूस शांति से रहेगा. 1990 के बाद पीस डिविडेंड यानी शांति में हिस्सेदारी का विचार सामने आया. सभी यूरोपीय देश
पश्चिम के साथ-साथ रूस और सोवियत संघ के पूर्व देश भी अपने हथियार कम करने लगे. इसके पीछे तर्क यह था कि अगर सभी के पास कम हथियार होंगे तो यह संकेत होगा कि कोई भी विवाद नहीं चाहता. कुछ वर्षों तक ज़रूर ऐसा लगा कि उस सोच ने काम किया. रूस और पश्चिम के संबंध सुधरे. 1997 में रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन और नाटो देशों के नेताओं के बीच नाटो-रशिया फाउंडिंग एक्ट नामक समझौता हुआ जर्मन राजनयिक वोल्फगांग इशिंगर इसकी वार्ताओं में शामिल थे. 1990 के दशक की पहली छमाही में रिश्तों में कोई टकराव या तनातनी नहीं थी
. मॉस्को को पश्चिम के साथ सहयोग की ज़रूरत थी. रूस को तुरंत G7 में जगह मिल गई जिससे हम अचानक G8 हो गए. नाटो-रूस फाउंडिंग एक्ट साफ़-साफ़ कहता है कि, नाटो और रूस एक दूसरे को दुश्मन नहीं मानेंगे. मेरे लिए आज का दिन काफ़ी मायने रखता है. और मैं उम्मीद करता हूँ कि फाउंडिंग एक्ट पर दस्तखत के बाद से यूरोप के लिए एक नया युग शुरू होने जा रहा है शांत यूरोप. यूरोपीय महाद्वीप का भविष्य इतना आसान नहीं है. फाउंडिंग एक्ट में पश्चिम ने रूस को काफ़ी रियायतें दीं. हम इस बात पर राज़ी हुए कि नाटो के किसी भी भावी पूर्वी
सदस्य राष्ट्र की ज़मीन पर परमाणु हथियारों की तैनाती नहीं की जाएगी. बात ख़त्म. कोई अगर-मगर नहीं. हमने यह भी स्वीकार किया कि उन देशों में तैनात की जाने वाली नाटो सदस्य देशों की सैन्य टुकड़ियां भी छोटी होंगीं. मॉस्को स्थित 'रशियन इंटरनेशनल अफेयर्स काउंसिल' के अकादमिक निदेशक आंद्रे कोर्तुनोव कहते हैं कि नाटो उस समझौते पर क़ायम रहा. मैं मानता हूँ कि 2014 से 2022 के बीच नाटो ने पूर्वी छोर पर नई सैन्य टुकड़ियों और भारी हथियारों की तैनाती में संयम बरता. यह सिर्फ़ इसलिए किया गया ताकि उन पर नाटो-रशिया फाउंडिं
ग एक्ट के उल्लंघन का आरोप ना लगे. एक्ट के मुताबिक़ रूसी सीमाओं के पास हथियारों के बड़े ज़खीरे नहीं रखे जा सकते. वहीं दूसरी तरफ़, रूस कुछ और ही कर रहा है. हमें यह मानकर चलना चाहिए कि कालिनिनग्राद में न्यूक्लियर मिसाइल सिस्टम हैं, जो यहां बर्लिन पहुँचने से पहले हमें ज़्यादा चेतावनी नहीं देंगे. वहां कुछ चल रहा है. हमने वैसा कुछ भी नहीं किया है. हमने इस दिशा में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो एकीकरण से पहले नहीं था. यानी शीत युद्ध के दौरान. 1999 में पुतिन के रूसी राष्ट्रपति बनने के बाद भी रूस और नाटो के संब
ंध अच्छे थे. लगा जैसे पुराने दुश्मन दोस्त बन गए. हालांकि, एक नया दुश्मन पैदा हो चुका था आतंकवाद. नाटो का "आर्टिकल 5" अब तक सिर्फ़ एक ही बार लागू हुआ है. 11 सितम्बर 2001 के आतंकी हमले के बाद. आज आज हमारे देशवासी हमारी ज़िंदगी हमारी आज़ादी जानबूझ कर किए गए घातक आतंकी हमलों से खतरे में आ गई है. बिल्डिंगों में, विमानों के घुसने वाली फ़ोटो आग की लपटें भरभरा कर गिरती बड़ी इमारतों ने हमें, अविश्वास से भर दिया. उस वक़्त श्टेफ़ानी बाब्स्ट ब्रसेल्स के नाटो मुख्यालय में सुरक्षा सलाहकार थीं. उन्होंने यह सब क़रीब
से देखा है. उस वक़्त, यानी हमले के समय और हमले के बाद इस बात की आशंका थी कि अभी और हमले होंगे. लेकिन कहां हमें नहीं पता था. मुझे अभी भी याद है कि नाटो मुख्यालय में हम कर्मचारी कितने डरे हुए थे. हमें लगा कि हम भी निशाने पर थे. तुरत-फुरत नार्थ अटलांटिक काउंसिल की मीटिंग बुलाई गई. अमेरिकी राजदूत ने आँखों देखी घटना का विवरण देते हुए शुरुआत की. उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि हमले के कुछ ही घंटों के भीतर सरकार ने उस घटना का आकलन किया. जो उन्हें पता था खासकर खुफिया सूचनाओं के बारे में. तत्कालीन महासच
िव जॉर्ज रॉबर्ट्सन ने कहा कि एलाइड सदस्यों के बीच आम सहमति थी. हम प्रभावित देश अमेरिका के साथ मजबूती के साथ खड़े थे और वह सब आर्टिकल 5 के दायरे में हो रहा है. काउंसिल इस बात पर राज़ी हुई कि अगर यह साबित हो गया कि अमेरिका पर किया गया यह हमला बाहर से प्रायोजित था तो वॉशिंगटन संधि के 'आर्टिकल 5' के अनुसार एक्शन लिया जाएगा. उस संबंध में, 'आर्टिकल 5' को लागू करने में काफ़ी जोखिम था क्योंकि किसी को नहीं पता था कि अगले एक सप्ताह में क्या होने वाला है. क्या अमेरिका अपने सहयोगियों से तुरंत सैन्य मदद की मां
ग करेगा? हमले के 48 घंटे बाद तक किसी को यह पता नहीं था. हमले के जवाब में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2001 में आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया. उसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में चली लड़ाई में सभी नाटो देशों सहित कुल 70 देशों ने भाग लिया. और रूस. हमले के कुछ दिनों बाद, पुतिन ने जर्मन संसद को संबोधित किया. 9-11 के बाद पुतिन उन कुछ पहले लोगों में से थे जिन्होंने अपनी संवेदना प्रकट करते हुए मदद की पेशकश की थी. उस वक़्त भी संबंध स्थिर ही थे. लेकिन देवियों और सज्जनों अगर हम सुरक्षा के बारे में बात कर रह
े हैं तो हमें साफ पता होना चाहिए कि हमें किससे और कैसे बचने की ज़रूरत है. इस सम्बन्ध में, मैं 11 सितंबर को अमेरिका में हुए विध्वंसक हमले का ज़िक्र किए बिना नहीं रह सकता. पूरी दुनिया में लोग पूछ रहे हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है और इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है. मुझे लगता है कि हम सब ज़िम्मेदार हैं ख़ासकर हम राजनेता. हम अभी भी पुराने मूल्यों के साथ ही जी रहे हैं. हम साझेदारी की बात तो करते हैं लेकिन आपस में हमने अभी तक भरोसा करना नहीं सीखा. पुतिन ने अफ़ग़ानिस्तान में अल-क़ायदा के ख़िलाफ़ लड़ाई में नाटो का समर
्थन किया था. नाटो का कुछ साजो-सामान रूस से होकर गुज़रता था. उस समय पुतिन ने रूस के नाटो ज्वाइन करने के बारे में भी सोचा था. इस सहयोग से नाटो देश और रूस दोनों को ही आर्थिक और राजनीतिक फ़ायदे हुए थे. 21वीं सदी की शुरुआत में रूस और पश्चिम के बीच काफ़ी सहयोग हुआ. इसका सबसे बड़ा उदाहरण शायद वह यातयात सुविधा है जो रूस ने अफगानिस्तान युद्ध के दौरान नाटो को दी. कथित 'नॉर्दर्न ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर' ने कुछ सालों के लिए अच्छा काम किया. यह काफ़ी प्रभावी रहा. वर्ष 2002 से, रूस और नाटो के प्रतिनिधि 'नाटो-रूस का
उंसिल' में नियमित रूप से मिलते रहे. नेताओं के बीच अच्छे संबंध थे. उन्होंने कहा है कि "नाटो-रूस काउंसिल" का मुख्यालय अब बेल्जियम, ब्रसेल्स में होगा तो मैं सलाह दूंगा कि उसका नाम "हाउस ऑफ सोवियत्स" रखा जाए. वह ठीक रहेगा. इराक़ में अमेरिकी हस्तक्षेप की वजह से संबंध ज़रूर बिगड़ने लगे क्योंकि मॉस्को को लगने लगा कि चीजें हद से बाहर जा रही हैं. अगर अमेरिका वहां पर हज़ारों टैंक और सैनिकों के साथ युद्ध करेगा तो इसका अंत कहां होगा, जो कि बाद में ग़लत सूचना निकली. यह रूस और पश्चिम के अच्छे संबंधों की समाप्त
ि की शुरुआत थी. चीन और फ्रांस की तरह ही रूस ने भी "संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्" में इराक़ को लेकर अमेरिकी कदम का विरोध किया था. फिर भी अमेरिका ने हमला किया यूएन की मंजूरी के बिना. इराक़ में अमेरिका और उसके सहयोगियों की कार्रवाई के चार साल बाद 2007 में पुतिन 'म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस' में बोले. उन्होंने जर्मन या अंग्रेज़ी के बजाए रूसी भाषा में संबोधित किया और उन्होंने अमेरिका और उसके सहयोगियों की नीतियों की आलोचना की. इस कॉन्फ्रेंस के स्वरूप के अनुसार मैं किसी झूठे दिखावे और खोखले राजनयिक
वादों के बिना आसानी से अपनी बात रख सकता हूँ. पश्चिम में, मॉस्को और ब्रसेल्स के बीच जारी संपर्क को, रूस के प्रति नाटो के बड़प्पन के तौर पर देखा जाता था. काउंसिल का काम लगभग सिर्फ़ सूचनाओं के आदान-प्रदान तक ही सीमित रह गया था लेकिन निर्णय लेने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी. ज़ाहिर है इन दो सोचों का कभी-ना-कभी आपस में टकराव तय था. हम लगातार देख रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून के बुनियादी सिद्धांतों विशिष्ट नियमों और यहां तक कि एक देश के पूरे कानूनी ढांचे का उल्लंघन हो रहा है. ख़ासकर अमेरिका ने आर्थिक नी
ति, मानवता समेत हर मोर्चे पर राजनीतिक सीमाएं लांघी हैं. और ये दूसरे देशों पर भी थोपा जा रहा है. ये किसे पसंद आएगा? शायद हमने बिना सोचे समझे प्रतिक्रिया दे दी. दरअसल, वह प्रतिक्रिया सिर्फ़ बात को टालने के लिए दी गई थी और उम्मीद थी कि अगले दिन सब पहले जैसा सामान्य होगा. लेकिन वह ग़लत आकलन था. हमें इसका पता चला साल 2008 में जब रूस ने जॉर्जिया में विद्रोह का जवाब कड़ी सैन्य कार्रवाई से दिया. उसके बाद तो चीज़ें बिगड़ती ही चली गईं. 2014 में, रूसी सेना ने यूक्रेन से क्रीमिया हथिया लिया. देश के पूर्वी इ
लाके में मौजूद रूसी समर्थक विद्रोहियों को हथियार और ज़रूरत के सामान और कभी-कभी सैन्य शक्ति भी उपलब्ध करवाई गई थी. इस पर रूस का कहना था कि वह सिर्फ़ अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा कर रहा है. लेकिन दरअसल, वह शायद यूक्रेन को नाटो सदस्य नहीं बनने देने की जुगत थी. क्योंकि विवाद में शामिल कोई देश नाटो का सदस्य नहीं बन सकता. इसी क्रम में रूस ने यूक्रेन पर 2022 में भी हमला किया. उससे एक सप्ताह पहले ही रूसी विदेश मंत्री ने "नाटो-रूस काउंसिल" की समाप्ति की घोषणा की थी. वह 1997 की सीमा वाली स्थिति चाहते है
ं. उन्होंने दिसम्बर 2021 में नाटो को एक कॉन्सेप्ट ट्रीटी टेक्स्ट भेजा था. जिसका मतलब यह हुआ कि वर्ष 1997 के बाद से जो भी देश नाटो सदस्य बने हैं वे दूसरे दर्जे के सदस्य माने जाएंगे. और निश्चित तौर पर अस्वीकार्य है. पुतिन चाहते हैं कि नाटो छोटा रहे, लेकिन यह बड़ा होता जा रहा है. फ़िनलैंड ने 2023 में सदस्यता हासिल की. स्वीडन ने 2022 में आवेदन किया लेकिन उसे शुरू में सदस्यता नहीं मिली थी. 20 महीनों तक तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोआन स्वीडन के आवेदन के विरोध में अड़े रहे. हंगरी ने तो उससे भी ज़्
यादा समय तक विरोध किया. जब भी किसी नए सदस्य के आवेदन की बात आती है तो सभी मौजूदा सदस्यों के पास वीटो अधिकार होता है. स्वीडन एक साल से भी ज़्यादा समय से तैयारी कर रहा था. उन्होंने एक बहुत ही अहम फैसला लिया जो सच में ऐतिहासिक था. उन्हें इसे अपनी संसद में ले जाना पड़ा. यह एक कठिन राजनीतिक कदम था. और जब वह दरवाज़े पर थे, तब उन्हें मिन्नतें करनी पड़ीं. कमोबेश वह सिर्फ़ दो लोगों पर निर्भर थे एक हंगरी के प्रधानमंत्री ओरबान और दूसरे तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन. एर्दोआन को इस बात से ऐतराज़ था कि स्वीडन अपने
यहां "कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी" या PKK से सम्बंधित गुटों के ख़िलाफ़ कोई ठोस कदम नहीं उठा रहा है. PKK, को तुर्की ने प्रतिबंधित कर रखा है जबकि यूरोपीय संघ इसे आतंकी गठबंधन मानता है. मेरे पूर्व बॉस और नाटो के पूर्व महासचिव येन्स श्टोल्टेनबर्ग ने कई बार अंकारा की यात्रा की ताकि फ़िनलैंड और स्वीडन नाटो ज्वाइन कर लें. हमने एर्दोआन को मनाने के लिए अपील और कोशिशें कीं और कुछ हद तक डील भी की. रिसर्चर यशार आयदिन कहते हैं कि एर्दोआन ने नाटो का ख़ूब फायदा उठाया है. आयदिन ने "जर्मन इंस्टीट्यूट फ़ॉर इंटरनेशनल
एंड सिक्योरिटी अफेयर्स" में अपने कार्यकाल के दौरान काफ़ी सालों तक तुर्की की विदेश नीति का अध्ययन किया है. तुर्की के इस रुख के पीछे ख़ास वजह है. अगर आप उस तरह से देखें तो वह अमेरिका से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाना चाहता है. उदाहरण के लिए यह F-16 लड़ाकू विमान हासिल करने से जुड़ा है. तुर्की आसानी से नहीं मानने वाला है. वे सौदेबाज़ी कर रहे हैं. इस बीच, नाटो के सामने अभी भी वही पुराना सवाल है कि हमले की स्थिति में गठबंधन कितना एकजुट रहेगा? सर्वे के मुताबिक़, तीन चौथाई तुर्क नाटो सहयोगी अमेरिका को सबसे ब
ड़ा ख़तरा मानते हैं. नाटो को भी सिर्फ़ 23 फ़ीसदी तुर्क ही पसंद करते हैं. इस बीच एर्दोआन ने सालों तक रूस से दोस्ती वाला रिश्ता रखा है. पश्चिम के प्रतिबंधों के बावजूद अंकारा और मॉस्को के बीच गहरे व्यापारिक संबंध रहे हैं. यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद साल 2023 में, एर्दोआन ने रूस को पश्चिम के जैसा ही भरोसेमंद सहयोगी बताया था. तुर्की और रूस के संबंध एक तरफ़ सहयोग तो दूसरी तरफ़ विवादों से जुड़े रहे हैं. तुर्की रूस पर प्रतिबंधों का विरोध करता है. उसकी रूस से बातचीत जारी रखना भी काफ़ी महत्वपूर्ण है. लेकिन दू
सरी तरफ़, अंकारा ने क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े को स्वीकार नहीं किया. तुर्की ने यूक्रेन का पहले भी समर्थन किया है और अब भी कर रहा है. सालों पहले रूस ने तुर्की के साथ रणनीतिक साझेदारी बढ़ानी शुरू कर दी थी. दोनों देशों के बीच आर्थिक और ऊर्जा नीति पर आपसी साझेदारी है. सैन्य और ख़ुफ़िया मामलों में भी दोनों एक-दूसरे के नजदीकी सहयोगी हैं. ये गठबंधन के लिए ठीक नहीं है. मैंने किसी भी देश के बारे में नहीं सुना कि वह तुर्की को बाहर करने की धमकी पर विचार कर रहा हो या दूसरे शब्दों में वे अपना फ़ायदा देख रहे हों औ
र अंकारा पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हों कि नाटो की सदस्यता मिलनी ज़रूरी नहीं है. नाटो को तुर्की की ज़रूरत है ना कि तुर्की को नाटो की. भौगोलिक रूप से तुर्की के सहारे ही नाटो काला सागर और इस्लामिक दुनिया तक पहुंच सकता है. लेकिन सबसे बढ़कर, नाटो उसकी सैन्य शक्ति पर भरोसा रखता है. तुर्की गणराज्य ने अपनी 100वीं वर्षगांठ पर, अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया. सैन्य संख्या के लिहाज से, गठबंधन में अमेरिका के बाद तुर्की ही दूसरा सबसे बड़ा सैन्य शक्ति वाला राष्ट्र है. वो भी काफ़ी बड़े अंतर से. फ्रांस तीस
रे नंबर पर है. जिसकी सैन्य संख्या तुर्की की आधी से भी कम है. मतलब कि तुर्की सैन्य रूप से नाटो पर ही निर्भर नहीं है. लेकिन फिर भी अंकारा हालात से ख़ुश है. तुर्की में ना ही पहले कभी नाटो छोड़ने को लेकर, सवाल उठे हैं और ना ही अब उठ रहे हैं. सरकार ने हमेशा ऐसी बहस से परहेज़ किया है. मेरा मानना है कि रणनीतिक तौर पर तुर्की के लिए यह काफ़ी फायदेमंद है कि एक क्षेत्रीय शक्ति होने के साथ ही पश्चिम से भी उसके अच्छे संबंध हैं. इससे उसे दोगुनी सुरक्षा मिलती है. वह अपने क्षेत्र में अपनी ताक़त का प्रदर्शन करता है
, जैसे उसने यूक्रेन को रूस के खिलाफ करने में किया. वह काला सागर और सीरिया में अपनी स्थिति पर ध्यान केंद्रित रखता है. साथ ही, उसे नाटो और पश्चिम की सुरक्षा भी मिली हुई है. यह तुर्की के लिए रणनीतिक फ़ायदे की बात है. अगर वे इसे छोड़ देंगे तो मोलभाव नहीं कर पाएंगे. फ़िलहाल वह बहुत ही कुशलता से तालमेल बनाए हुए हैं. इसीलिए फ़िलहाल मुझे नहीं लगता कि तुर्की या कम से कम एर्दोआन जैसे माहिर खिलाड़ी के लिए यह एक उचित विकल्प है. एर्दोआन बहुत ही सूझबूझ वाले और चौकस व्यक्ति हैं. नाटो के सदस्य होने के नाते वह वैश
्विक मुद्दों को प्रभावित कर सकते हैं. यह उन्हें रूस और यूरोप के मुकाबले मज़बूत स्थिति देता है. वह दुनिया के शक्तिशाली राष्ट्रों के साथ हैं. उसे क्यों छोड़ना? अमेरिका, नाटो का सबसे अहम सदस्य रहा है. वह इसकी शक्ति और भविष्य दोनों के लिए अहम है. आज हम यहां पर एक महत्वपूर्ण फ़ैसला सुनाने आए हैं जो हरेक शहर सभी देशों की राजधानियों और सत्ता के सभी गलियारों में सुनाई देगा. आज से हमारा देश एक नई सोच के साथ, चलाया जाएगा. आज के बाद सिर्फ़ 'अमेरिका पहले' होगा 'अमेरिका पहले'. नाटो में अमेरिका की संयोजक के तौर
पर काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका है. गठबंधन में राष्ट्रपति की भूमिका अहम है. एक अमेरिकी राष्ट्रपति अमेरिकी सेना व परमाणु ताकत जैसे संसाधनों के ना होने का मतलब होगा कि गठबंधन एक छाया के सिवा कुछ नहीं रह जाएगा. मान लीजिए कि इटली नाटो में ना रहने का फैसला करने लगे तो वो बात अलग होगी. यह हाल के वर्षों का सबसे नाटकीय घटनाक्रम है कि इस बीच जिस देश के नाटो की सदस्यता छोड़ने का डर रहा है वह अमेरिका है. जुलाई 2018 में नाटो के महासचिव येन्स श्टोल्टेनबर्ग और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ब्रसेल्स की एक मीटिंग
के दौरान कैमरे के सामने झगड़ते दिखे. जर्मनी सिर्फ़ 1 प्रतिशत से कुछ ही ज़्यादा दे रहा है जबकि अमेरिका उससे कहीं बड़ी GDP का 4.2 प्रतिशत दे रहा है. जो मुझे सही नहीं लगता. हम जर्मनी की रक्षा कर रहे हैं, हम फ्रांस की रक्षा कर रहे हैं, हम सभी की रक्षा कर रहे हैं. और फिर भी हम सुरक्षा पर अपना काफ़ी पैसा ख़र्च कर रहे हैं. और यह दशकों से चलता आ रहा है. और तब कई देश जाकर रूस के साथ पाइपलाइन की डील कर आते हैं. वे रूस के खज़ाने में करोड़ों डॉलर दे आते हैं. मुझे लगता है कि यह बहुत ही ग़लत है. और जर्मनी के पू
र्व चांसलर उस पाइपलाइन कंपनी के प्रमुख हैं जो गैस सप्लाई करती है. 2014 में, सदस्य राष्ट्र अपनी GDP का 2 फ़ीसदी रक्षा पर ख़र्च करने को राज़ी हुए. लेकिन अमेरिका के अलावा शायद ही कोई देश ऐसा कर रहा है. डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान जॉन बोल्टन क़रीब 18 महीने तक अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे. जब तक कि राष्ट्रपति ने उन पर इस्तीफा देने का दबाव नहीं डाला. जब मैं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बना तो मुझे लगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े फैसलों का भार और ज़िम्मेदारी डॉनल्ड ट्रंप पर असर डालेगी और उ
नसे पहले आए अमेरिका के 44 राष्ट्रपतियों की तरह उन्हें भी अनुशासित करेगी. बोल्टन वहां पर नाटो सम्मेलन के दूसरे दिन मौजूद थे जब ट्रंप ने एक भयंकर कांड लगभग कर ही दिया था. हां, मैं कार में था और ब्रसेल्स स्थित अपने राजदूतावास की ओर जा रहा था जहां राष्ट्रपति रुके हुए थे. और उन्होंने मुझे कार में बुलाया और कहा कि मुझे लगता है कि आज हमें कुछ ऐतिहासिक करना चाहिए. मुझे लगता है कि हमें नाटो से बाहर हो जाना चाहिए. और मैंने अचंभित होकर कहा, कि ठीक है. इस पर बात करते हैं. मैं वहां पहुंचने ही वाला हूं. और जै
से ही मैंने फ़ोन बंद किया. मैंने तुरंत विदेश मंत्री माइक पॉम्पीओ, राष्ट्रपति भवन के चीफ ऑफ़ स्टाफ जॉन केली से बात की. मैंने रक्षा मंत्री जिम मैट्टीस से बात करने की कोशिश की ताकि उन्हें कह सकूं कि सब तैयार रहें. मुझे यह बहुत ही गंभीर मसला लगा. नाटो के इतिहास में पहली बार ऐसा लगा कि सच में अमेरिका बाहर हो सकता है. मैं इस बात को लेकर ज़्यादा चिंतित था कि ट्रंप कहीं वहां पर नाटो से बाहर होने की घोषणा ना कर दें. इसलिए नहीं कि हमने वैसा सोचा नहीं था. ना ही इस कारण कि हमने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् में भी
इसके बारे में चर्चा नहीं की थी. बल्कि इसलिए क्योंकि अगर ट्रंप ने एक बार बोलना शुरू किया तो वह बस आगे बढ़कर बोलते ही जाते. और एक समय तो ट्रंप ने मुझसे कहा था कि वह मेरी जगह पर उसको रखेंगे, जो उनसे बहस ना करे और उनकी हां में हां मिलाए जब वो ऐसी बातें कहें कि मैं नाटो से बाहर होना चाहता हूँ. मेरी उनसे आख़िरी बात तब हुई जब वह नाटो के मीटिंग रूम में एक बड़े से टेबल पर थे. उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा, अच्छा बताओ कि क्या हमें यह करना चाहिए? और मैंने कहा कि, ज़्यादा कुछ मत कीजिए जो हो रहा है होने दीजिए.
और तब मैं वापस जाकर बैठ गया. और जब में बैठा तो मुझे नहीं पता था कि वो क्या करेंगे? मुझे लगता है कि अगर कोई दूसरा राष्ट्रपति होता तो यह मज़ाक़ के तौर पर लिया जाता. लेकिन, क्योंकि लोग जानते हैं कि जितनी नाटो को अमेरिका की ज़रूरत है, उतनी ही ज़रूरत अमेरिका को नाटो की है. इसलिए कोई भी उस बात को गंभीरता से नहीं लेता. उनके बारे में लगता है कि वह गठबंधन का असल महत्व नहीं समझते हैं या इसका मतलब क्या है या इतिहास क्या है. या हम जो करते हैं वो क्यों करते हैं? वह दुनिया को सौदेबाज़ी की नज़र से देखते हैं. सिर्
फ़ अपना फ़ायदा. अगर मैं किसी की हिफ़ाज़त करता हूँ तो मुझे क्या फ़ायदा होगा? नाटो से मुझे मुनाफ़ा क्यों नहीं हो रहा है? उन्हें यह समझ में नहीं आता कि नाटो अमेरिका के लिए वैश्विक स्थिरता और सुरक्षा बनाए रखने का एक ज़रिया है. उनके लिए यह सिर्फ़ एक डील है. आप मुझे यह दीजिए, मैं आपको वह दूंगा. लेकिन नाटो इस पर आधारित नहीं है. ट्रंप की धमकी बेअसर रही. लेकिन नाटो के यूरोपीय सदस्य देश काफ़ी चिंतित थे. बर्लिन, जुलाई 2019 लंदन स्थित 'इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फ़ॉर स्ट्रैटीजिक स्टडीज़' और कोरबर फाउंडेशन ने एक अभ्यास कि
या. इसमें जर्मनी फ्रांस इंग्लैंड और अमेरिका के सुरक्षा विशेषज्ञों ने भाग लिया. सब कुछ गुप्त तरीक़े से हुआ. ना ही जगह और ना ही प्रतिभागियों के नाम उजागर किए गए. नोरा म्यूलर कोरबर फाउंडेशन में अंतरराष्ट्रीय मामलों की निदेशक हैं. स्थितियों की नकल करने वाले ऐसे अभ्यासों में हम सरकारी अधिकारियों को ही नहीं बल्कि शैक्षिक संस्थानों और थिंक टैंकों के विशेषज्ञों को भी बुलाते हैं. वहां उन सभी देशों के विशेषज्ञ आते हैं जिनके लिए इस अभ्यास की स्थितियां मायने रखती हैं. और इस तरह के आयोजनों को लेकर सबसे ज़रूरी
बात है कि इसके प्रतिभागियों की जानकारी गुप्त रखी जाती है. काल्पनिक परिदृश्य यह था ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका नाटो से बाहर हो जाता है. यह कोई सैन्य नहीं बल्कि एक राजनीतिक परिदृश्य था. तो बाक़ी देश किस तरह की रियायतें देने के लिए तैयार हैं? क्या नाटो, अमेरिकी धमकी के दबाव में टूट सकता है? जर्मन टीम अपनी व्यापार नीति को इस्तेमाल कर ऐसी परिस्थिति से निपटने को तैयार थी. पोलैंड की टीम भी कुछ इसी तरह अमेरिका से, नाटो से इतर एक द्विपक्षीय सुरक्षा नीति समझौते के लिए तैयार थी. और ये
खेल के बाकी खिलाड़ियों के लिए वाक़ई चिंता की बात थी. क्योंकि अगर हमने अमेरिका से द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते करने शुरू कर दिए तो नाटो का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा. इस अभ्यास में गठबंधन की कमजोरियां खुलकर सामने आईं. अमेरिका के बाहर हो जाने से नाटो काफ़ी कमज़ोर हो जाएगा और द्विपक्षीय समझौतों की होड़ लग जाएगी. नाटो के इतिहास में यह प्रश्न भी मिल सकता है कि अगर अमेरिका यूरोप से बाहर हो जाए तो क्या होगा? और उन्होंने, द्विपक्षीय समझौतों का दौर लौटने की कल्पना की थी. दो देशों, या यूरोप में तीन देशों के बीच
समझौते हो सकते हैं. और उन्हें दूसरे विश्व युद्ध के पहले वाले दौर की वापसी दिख रही थी जब यूरोप में खूब समझौते होते थे. और उन्हें इस बात की चिंता हुई कि युद्ध शुरू होने की स्थिति में ये बहुत ही अस्थिर और ख़तरनाक़ हालात होंगे जहां देशों के ऊपर कई तरह की सुरक्षा जिम्मेदारियां होंगी और इससे प्रभावों की एक झड़ी लग सकती है. 2019 में बर्लिन में चुपचाप जिस सीन का अभ्यास किया गया वह एक बार फिर 2024 में प्रासंगिक हो उठा है. ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में नाटो को फिर मुद्दा बना लिया है. हमें इस से कुछ ख़ास नह
ीं मिला. और मुझे आपसे नाटो के बारे में यह कहते हुए अच्छा नहीं लगता कि अगर हमें कभी ज़रूरत हुई, मान लीजिए कि हम पर कभी हमला हुआ तो मुझे नहीं लगता कि वे आएंगे. मुझे इस बात का ज़्यादा डर है कि अगर वह दोबारा राष्ट्रपति बने तो वह नाटो से बाहर निकल जाएंगे. शायद वह यूक्रेन को भी अकेला छोड़ दें और ना जाने क्या करेंगे. यह बहुत ही डरावना और विनाशकारी होगा. मुझे लगता है कि ट्रंप नाटो से बाहर हो जाएंगे, क्योंकि वह हमेशा से ही उनकी मंशा रही है. मुझे लगता है कि अपने पिछले कार्यकाल में ऐसा नहीं कर पाने के कारण
वह बहुत ही निराश हैं. शायद वह मुझ जैसे लोगों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं. और मैं आपको यह कह सकता हूँ कि ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में मुझ जैसे लोगों को तो बिल्कुल ही नहीं रखेंगे. उन्होंने मुझसे वो सवाल पूछा, एक बड़े देश के राष्ट्रपति खड़े हुए और उन्होंने कहा कि अच्छा सर, मुझे बताइए, कि हम भुगतान नहीं करते हैं और रूस ने हम पर हमला कर दिया, तो क्या आप हमारी रक्षा करेंगे? मैंने कहा कि 'अगर आपने भुगतान नहीं किया तो ये आपकी ग़लती है'. फिर उन्होंने कहा कि 'मान लीजिए कि अगर ऐसा हुआ तो'? नहीं. हम आपक
ो नहीं बचाएंगे. बल्कि मैं तो उनसे कहूंगा कि वो आपके साथ जो भी करना चाहें करें. आपको भुगतान तो करना होगा. आपको अपने बिल तो चुकाने होंगे. और फिर पैसा आने लगा. हम दुनिया के बेवक़ूफ़ देशों में से एक थे लेकिन हम आगे, बेवकूफ़ नहीं बने रहेंगे. असली खतरा अमेरिका का नाटो से आधिकारिक तौर पर बाहर जाना नहीं है. इसको लेकर कांग्रेस ने 2019 में एक साफ़-साफ़ क़ानून भी बनाया था. राष्ट्रपति के पास नाटो ट्रीटी ब्रेक करने का अधिकार नहीं है. संधियों को कांग्रेस से गुज़रना होगा. असली खतरा तो किसी सहयोगी पर हमले की स्थिति म
ें राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को लेकर है चाहे उस वक़्त राष्ट्रपति ट्रंप हों या कोई और. अगर ट्रंप दोबारा जीत जाते हैं और नाटो से आधिकारिक रूप से बाहर नहीं होते हैं क्योंकि अमेरिकी कांग्रेस उन्हें ऐसा नहीं करने देगी वो फिर भी हमले की स्थिति में कुछ नहीं करने का निर्णय ले सकते हैं. अमेरिकी कांग्रेस को तब भी युद्ध की घोषणा का अधिकार होगा. लेकिन अमेरिकी सैन्य कमांडर होने के नाते वह सेना को युद्ध के लिए नहीं भेजने को स्वतंत्र होंगे. क्या सिर्फ़ एक व्यक्ति की वजह से विश्व का सबसे बड़ा सैन्य गठबंधन और इसका
शक्तिशाली 'अनुच्छेद 5' कमज़ोर पड़ सकता है? और नाटो के लिए सिर्फ़ वही एक ख़तरा नहीं है. बहुत सालों से वैश्विक शक्ति समीकरण बदल रहे हैं. एक बात है, अमेरिकी समाज बदल रहा है. लेकिन हाल के वर्षों में एक नज़रिया बना है कि चीन, ख़तरा बन के उभर रहा है. वही एक ऐसी वैश्विक शक्ति है जिससे अमेरिका को ख़तरा है. इस मामले में, रूस एक अलग ही श्रेणी में आता है. ग्लोबल फ़ायरपावर इंडेक्स की रैंकिंग के अनुसार चीन दुनिया का दूसरा सबसे बड़ी सैन्य शक्ति वाला देश है. चीनी सेना का आधुनिकीकरण 2035 में पूरा कर लिया जाएगा. इ
सके अलावा चीन के पास सबसे बड़ी नौसेना है. हाल के वर्षों के सैटेलाइट पिक्चर्स से यह पता चलता है कि चीन ने चीन सागर के छोटे-छोटे द्वीपों पर बड़ा मिलिट्री बेस खड़ा कर लिया है. ताइवान और अन्य एशियाई देशों के प्रति चीन का रवैया काफ़ी आक्रामक है. वे देश भी नाटो और अमेरिका की ओर से मदद की उम्मीद लगाए बैठे हैं. हम यूक्रेन के साथ भी यही देख रहे हैं. तो लगातार उठ रहा सवाल ये है कि क्या हम इन दोनों ही मंचों और क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय रह सकते हैं? हम जो भी हथियार या सहयोग यूक्रेन को दे रहे हैं क्या वि
वाद की स्थिति में वैसी ही मदद हमें ताइवान को भी नहीं देनी चाहिए? अमेरिका में यह बहस जारी है. 2019 में, मैं अमेरिकी दौरे पर एक डेलीगेशन का हिस्सा थी. हमारी चर्चा के दौरान अमेरिकी प्रतिनिधियों ने हमसे कहा कि रूस आपकी समस्या है. अब यह यूरोप की समस्या है. आपको उसका हल ढूंढना होगा. यह नहीं बदलने वाला, भले ही अगले 10 या 20 सालों में हमारे रूस के साथ अच्छे संबंध बन जाएं. तब तक यूरोपीय देशों को यह मानकर चलना होगा कि अमेरिका सीधे तौर पर विवाद की स्थिति में मदद नहीं करेगा. क्योंकि वह कहीं और व्यस्त होगा.
यूरोपीय देशों के सामने भविष्य में यह एक चुनौती होगी कि अमेरिकी सुरक्षा लेने के अलावा वे कैसे दूसरों के काम आ सकते हैं केवल अमेरिकी सुरक्षा का फायदा लेने वाले नहीं. क्या हमें प्लान B की ज़रूरत है? किसी एक संगठित यूरोपियन आर्मी जैसा कुछ? बहरहाल, यूरोपीय संघ समझौते का 'आर्टिकल 42' आपसी सहयोग की गारंटी देता है, ठीक नाटो के 'आर्टिकल 5' की तरह. कहने की ज़रूरत नहीं है कि विकेंद्रीकरण की स्थिति में अमेरिकी आर्मी आज जैसी शक्तिशाली नहीं होती. और ठीक उसी तरह एक संगठित कमांड ढांचे के तहत यूरोपियन आर्मी मुश्
किल है क्योंकि हम, अमेरिका की तरह एक देश नहीं हैं. यूरोपीयन संघ में 27 देश हैं. वे ब्रसेल्स या कहीं और मौजूद एक केंद्रीय कमांड के हाथों में सैन्य निर्णय नहीं सौंपेंगे. फ़रवरी में यूरोपीय कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला फॉन डेयर लायन ने एक EU डिफेन्स कमिश्नर की नियुक्ति के प्रस्ताव का समर्थन किया था. लेकिन एक यूरोपियन आर्मी के आयडिया पर काम काफ़ी पहले किया जाना चाहिए था. यूरोपीय देश ऐसा कर सकते हैं कि अपनी सेना को संगठित करें ताकि वे एक साथ मिलकर काम करें. लेकिन फिर भी वे रूस को डरा पाने में सफल नहीं होंग
े. लेकिन कम से कम उनके पास इतना आधार तो होगा कि वे छोटे या मध्यम आकार के मिशन खुद लड़ सकें. छोटे या मध्यम आकार के मिशन रूस को शायद ही डरा सकेंगे. जनवरी में, नाटो ने शीत युद्ध के बाद से अब तक का सबसे बड़ा युद्धाभ्यास किया जिसका नाम स्टेडफास्ट डिफेंडर था. इस युद्धाभ्यास में 90 हज़ार सैनिक, महीनों तक कृत्रिम हमले का सामना करेंगे. और काल्पनिक दुश्मन कौन है? रूस. एक ब्रिटिश कूटनीतिज्ञ ने कहा था कि सामान्यतः जब भी नाटो मुश्किल में होता है तो रूस ही उसे बचाता है. नाटो, अब उस वास्तविक कारण की तरफ लौट रहा
है जिसके आधार पर 1949 में नॉर्थ अटलांटिक ब्लॉक की स्थापना की गई थी मॉस्को को किनारे रखते हुए. पुतिन को, पसंद आए या ना आए यूक्रेन पर रूसी हमले ने नाटो को फिर से जिंदा कर दिया है. एक यूरोपीय और एक जर्मन होने के नाते, यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक की हमारी सबसे बड़ी परीक्षा है. यह कोई मामूली घटना नहीं है जिसे हम दूर से ही मैनेज कर लेंगे. बाहरी दबावों के बावजूद, यूरोप और अमेरिका के बीच की बढ़ती दूरी नज़रअंदाज़ करने लायक़ नहीं है. यूरोप के सामने कई नई समस्याएं हैं. सभी यूरोपीय देशों की सैन्य शक्ति
यों को मिला भी दिया जाए तो भी वे अमेरिकी सैन्य शक्ति के बराबर नहीं होंगीं. नाटो के बिना एक कारगर यूरोपीय रक्षा नीति बनाने में दशकों लग सकते है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि इसमें GDP के 2 फ़ीसदी से कहीं ज़्यादा का ख़र्च आएगा. और सिर्फ़ पैसों से ही सारा काम नहीं हो जाएगा. चीजें बनानी होंगी. ऐसे हथियार बनाने होंगे जिनके बारे में यूरोप फिलहाल सपना ही देख सकता है. शीत युद्ध के बाद 'पीस डिविडेंड' यानी शांति में हिस्सेदारी वाली व्यवस्था का वक्त जा चुका है. रक्षा एक बार फिर राजनीतिक मुद्दा बन चुकी है. मेरा पर
िवार है. हममें से ज़्यादातर लोग माता-पिता हैं. हमें लड़ाई नहीं चाहिए. यह हम कभी नहीं चाहते. तो इसे रोका कैसे जा सकता है? कुछ इस तरह की तैयारियों से और उन्हें संदेश पहुंचाकर, जिन्होंने कुछ साल पहले अपने एक पड़ोसी पर हमला कर दिया था. यह कहकर कि वो यहां काम नहीं आएगा. अपनी स्थापना के 75 सालों के बाद आज नाटो के सामने फिर से वही यक्ष प्रश्न है कि युद्ध होने से कैसे रोका जाए?

Comments

@educationvideo8283

नाटो संगठन " पूरी दुनिया में अशांति का जनक है ! "

@s1d14

दुनियां में अशांति का जनक नाटो ही है

@AMANKUMAR-se9gd

डॉ जो है पश्चिम परस्त चैनल है जो सिर्फ पश्चिम पश्चिम हर हाल में सब कुछ में सही है

@aslamimagyar6303

गरिब देशोको लुटनेके लिए एकआपसमे झगडते लडते थे अभि मिलके लुटको बाटते है तो इसिको नेटो लोग शान्ति कहते है। अभिके लोग सब सम्झते हे तु गोरे बातोको कितना भी घुमाले😂😂

@s.bkarki7386

षड्यन्त्रकारी, डरपोक कायरहरुको संगठन ।

@MDM.

Western Propoganda 😂

@MahmoodAlam-sm2pk

नाटो दुनिया में युद्ध और अस्थिरता का कारण है

@g99gaming2.0

नाटो शंति के लिए बरबादी के लिए

@vidyapatel7077

Thanks sir ❤ अमेरिका तो पायमल होने वाला है साथ में जो देश अमेरिका के भरोसे बैठा है वही भी पायमल हो जाएगा ❤🕉️🇮🇳

@kundansingh2677

Dw documentary is just 😲

@gautamrajput3683

Nato khud duniya kei liye sabsei😏😏😏😏😏 bda khatra hei jo duniya ko bantta hei

@user-vu4pd5ci5z

briliant piece of documentary

@azizjwddr17

शेर अकेला रेहता है झुंड मे नही

@mayankbhati1688

I love these types of vedios

@ANMOL_DHIMAN.

1 vs 30+ 🫡 but Russia ✊

@ravisen943

क्लाइमेट चेंज को रोकने वाली तकनीक geo engineering पर एक डॉक्यूमेंट्री।

@ramboxyz1074

Love you this type of video

@shisirghartimagar3909

Brilliant analysis ❤

@user-gi9tj1uk1m

विश्व शान्ति के लिए नाटो का भूमिका महत्वपूर्ण है।

@JackParrow263

DW tv को मे बता दु की पश्चिम की समस्या पूरी दुनिया की समस्या नहीं है।