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लालच: एक घातक तमन्ना [Greed: A Fatal Desire] | DW Documentary हिन्दी

18.08.2021 - “लोगों को बहुत सारी चीज़ें अर्जित करना पसंद है, क्योंकि ऐसा करके उन्हें लगता है कि वो हमेशा ज़िंदा रह सकेंगे,“ ऐसा कहना है अमेरिकी मनोवैज्ञानिक शेल्डन सॉलोमन का, जिनका मानना है कि आज के दौर के भौतिकवाद और उपभोक्तावाद से, भविष्य में भयानक परिणाम होंगे। आज के इस अहंकारी दौर में जो भी अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता, उसे असफल करार दिया जाता है। लेकिन 7 अरब से ज़्यादा आबादी वाली हमारी पृथ्वी पर संसाधनों के अत्याधिक उपभोग की जटिलताएं साफ तौर पर दिखने लगी हैं. क्या हमारी धरती की दयनीय स्थिति ये साबित करने के लिए काफी नहीं है कि यह ‘लालच का प्रपंच’, जिसकी आड़ में हम अर्जित करने, ओहदा और ताक़त हासिल करने की होड़ में लगे हैं, इसका अब अंत आ गया है? या ज़्यादा से ज़्यादा हासिल करने की हमारी चाहत, अभी भी हमारी प्रकृति का अपरिहार्य हिस्सा है? हम इस फिल्म में लालच के मुख्य तत्वों की खोज पर निकले हैं. और इस सफ़र में हम उन लोगों की कहानियां बता रहे हैं, जो या तो ख़ुद अपराधी हैं या पीड़ित हैं या फिर सिर्फ एक इच्छुक उपभोक्ता हैं, लेकिन वो सभी इस बदलते आदर्शों के दौर में अपराध में सहयोगी बन गये हैं. #DWDocumentaryहिन्दी #DWहिन्दी #उपभोग ------------------------------------------------ अगर आपको वीडियो पसंद आया और आगे भी ऐसी दिलचस्प वीडियो देखना चाहते हैं तो हमें सब्सक्राइब करना मत भूलिए. विज्ञान, तकनीक, सेहत और पर्यावरण से जुड़े वीडियो देखने के लिए हमारे चैनल DW हिन्दी को फॉलो करे: https://www.youtube.com/dwhindi और डॉयचे वेले की सोशल मीडिया नेटिकेट नीतियों को यहां पढ़ें: https://p.dw.com/p/MF1G

DW Documentary हिन्दी

2 years ago

मैंने एक विचित्र सपना देखा कि मैं एक सोने के मंदिर में चल रहा था कांच के एक भव्य गुम्बद के नीचे, और चमकदार कमरों में जिनमें ऐसी कई चीज़ें मौजूद थी, जिनकी मन में चाहत है। मुझे इंसानी कलात्मकता और कुशलता का जादू दिखा। और ऐसे लोग दिखे, जिनमें शायद कोई कमी नहीं थी। लेकिन ऐसा लगता था कि वे सब, कुछ ढूंढ रहे थे। बड़े ही अजीब लोग थे... यह पूरी दुनिया एक बड़ा जंजाल है! जितना वो पाते हैं, उतना ही और चाहते हैं। 9/11 हादसे के बाद राष्ट्रपति बुश ने बोला था मैं सभी अमेरिकी लोगों से अनुरोध करता हूं कि जाएं शॉ
पिंग करें। मेरा दिमाग़ मुझे पैसे कमाने को ही बोलता रहेगा। यह बात भीतर बैठ चुकी है। मैं इसी तरह पला हूं कि मैं तब भी पैसे ही कमाता रहूंगा, चाहे रेगिस्तान में ही छोड़ दिया जाऊं। कोई है जो कहने की कोशिश करता है तुम्हें इसकी ज़रूरत है, और फिर ऐसे बहुत लोग हैं जो सोचते हैं कि हां उन्हें ज़रूरत है। यही तो मार्केटिंग की कला है जो हमेशा आपको बताती रहती है संतुष्ट नहीं होना है। इंसान स्वभाविक तौर पर लालची होते हैं। विकास के क्रम में यह दिखा है। अगर यह प्रणाली इतनी हावी न होती, तो यह व्यक्ति विशेष के उद्द
ेश्य को बख़ूबी पूरा करती। मैं यहां तक कह सकता हूं कि आज यह, एक बीमारी का लक्षण बन चुका है। तबाही आने वाली है। ऐसी तबाही जो मैं और आप सोच भी नहीं सकते। मुझे तो शक़ है कि क्या हम इंसान जीवन का सही रूप हैं भी कहीं हम बड़े विकास के क्रम में लहर भर न हों, और पलक झपकते ही हम कॉकरोच म्यूज़ियम में डायनासोर के अवशेषों के बगल में रखे हों। एक बात मैं दिल से कहूंगा कि आपको हमेशा अपनी मृत्यु के बारे में सोचना चाहिए। मैं हमेशा ख़ुद से पूछता रहा कि हम ऐसे क्यों हैं? हम दूसरों की परवाह करने वाले और दयालु हैं ले
किन फिर हम अहंकारी और लापरवाह भी हैं। हम दान करते हैं और बचत भी। हम बनाते हैं और ध्वस्त भी करते हैं। हमारी समस्या क्या है? हमें क्या विवश करता है? मैं इसके जवाब ढूंढने निकल पड़ा। मानवजाति इस समय एक दोराहे पर खड़ी है, एक ऐतिहासिक दौर में। हमने प्रकृति को इतना नुकसान पहुंचा दिया है, अब हमें उस पर ध्यान देना होगा। हमें यह सोचना होगा कि युद्ध क्यों होते हैं? ज्यादातर लोग नाखुश हैं, बावजूद इसके, हम बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट्स बनाए जा रहे हैं। मैं यहां पूरा न होने वाला लालच देखता हूं, जो उन बाकी समस्
याओं से जुड़ा हुआ है, जिन्हें यदि हम नहीं समझें और उनके साथ सामंजस्य न बिठाएं, तो हम मानव जाति को ख़तरे में डाल देंगे। आप डार्विन की बात ले सकते हैं। अगर आप डार्विन के बारे में बात करेंगे, तो ज़ाहिर है वो इवोल्यूशन यानि विकासवाद पर होगी। और इस विकासवाद का अर्थ क्या है? ‘बदलाव’। और इसीलिए विकासवाद एक सोच है, जिसे डार्विन भी समझने की कोशिश में थे। और इसको लेकर उनका आश्चर्यजनक प्रस्ताव क्या था? "प्राकृतिक चयन" एक ओर जैविक तौर पर, जीवित रहने की प्रवृत्ति के आधार पर हम मनुष्य बाकी जीवों जैसे ही हैं।
लेकिन दूसरी तरफ़ हम इतने कुशल भी हैं कि अपने अस्तित्व को समझते हैं। और जीवित रहने के साथ-साथ अपने अस्तित्व को समझना, हमारे लिए बेहद ख़ुशी की बात है। हालांकि इस अस्तित्ववाद से जुड़े कई भारी बोझ भी हमारे हिस्से आते हैं। अगर आपको मालूम है कि आप यहां हैं, तो यह भी मालूम है कि सभी जीवित वस्तुओं की तरह आप एक दिन यहां नहीं होंगे। अगर हम यही सोचने लग गए कि मैं मर सकता हूं, तो मैं घर से बाहर निकलूंगा और मेरे ऊपर एक उल्कापिंड गिर जाएगा, तो ये डर हमें पंगु बना देगा। मनुष्य ने सालों साल जो बनाया और जिसे संज
ोए रखा, मानवविज्ञानी उसे आज संस्कृति कहते हैं। और हर संस्कृति किसी न किसी तरह अमर होने का रास्ता बताती है। या तो दुनिया के बड़े धर्मों की सीधे स्वर्ग और मौत के बाद के जीवन की कल्पना और परवर्ती जीवन से जुड़ी व्याख्या के ज़रिए या फिर प्रतीकात्मक तौर पर उस विचार के जरिए, जो मानता है कि हमारी पहचान का कुछ न कुछ प्रभाव भविष्य में भी बचा ही रहेगा। यही कारण है कि हम संतानें चाहते हैं, हम पिरामिड जैसे अजूबे बनाना चाहते हैं, अच्छी किताबें और संगीत रचना चाहते हैं। और इसीलिए हम ढेर सारा पैसा हासिल करना च
ाहते हैं। मनुष्य ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ें इसीलिए हासिल करना चाहता है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक तौर पर उसे लगता है कि वो हमेशा के लिए जी सकेगा। बौद्ध दार्शनिक नज़रिए के मुताबिक लालसा, लालच और संघर्ष जो क्रोध और आक्रोश को जन्म देते हैं, वो एक इंसान के सच को न स्वीकार करने की मानसिक स्थिति का नतीजा हैं। हम तीन मौलिक सच्चाईयों की बात करते हैं। पहली ये कि हर चीज़ अस्थायी होती है। दूसरी ये कि हर चीज़ का मूल सिद्धांत शून्यता बताया गया है। लेकिन फिर होता यह है कि हम कोई और चीज़ बनाने लगते हैं, जो इस बात क
ो भुला देती है। हम सब कुछ स्थायी बनाने की कोशिश करते हैं। और इससे पैदा होने वाला संघर्ष, तीसरे सच, यानी पीड़ा को जन्म देता है। फिर हम चीज़ों में फंसना शुरू कर देते हैं। मैं एक उदाहरण देना चाहूंगी मान लीजिए आपके पास एक शर्ट है और आप जब भी शॉपिंग करने जाते हैं, एक नई शर्ट ख़रीदते हैं। अब आपकी अलमारी में 12 शर्टें हो चुकी हैं, लेकिन फिर भी आप 13वीं शर्ट ख़रीदेंगे, सिर्फ़ ख़ुद को यह एहसास करवाने के लिए, कि आप इन 13 शर्टों या उससे भी कहीं ज्यादा को पहनने के लिए ज़िंदा रहने वाले हैं। यानि हर दिन कुछ
ऐसा करते रहने की इच्छा, जिससे हमारा यह यक़ीन और मज़बूत हो सके कि हम अमर हैं, हम लगातार जीते जाएंगे, बिना किसी बदलाव के... और इसी संघर्ष में हम लगातार इस तरह के विक्षिप्त ख्यालों को जन्म देते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है, लालच। मृत्यु एक सबसे वास्तविक तथ्य है। और इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आपका धर्म, राजनीतिक विचारधारा क्या है, आप कितने धनवान हैं, ये सब सिर्फ प्रतीक हैं और इनमें से कुछ भी आपकी मृत्यु के भय को कम या खत्म नहीं कर सकता। आप भले ही इसे कम कर सकते हैं, लेकिन इससे मुक्ति नहीं पा स
कते। और आख़िरकार इन सबसे ज़्यादा निराशाजनक बात ये है कि हमें ख़ुद को जानवर मानना भी पसंद नहीं है। अगर स्पष्ट जैविक दृष्टि से देखें तो हम धरती पर किसी मटर के दाने या एक चूहे से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं। एक जानवर सिर्फ़ उतना ही लेता है, जितनी उसे ज़रूरत होती है। लेकिन इंसानी जानवर अलग है। इस धरती पर हमारी आबादी 7 अरब से ज़्यादा है। और हम में से हर किसी की अलग इच्छाएं हैं। ज़्यादा की इच्छा। क्या यही हमारी सफलता का राज़ है? हमने अब ऐसे उपकरण बना लिए हैं जो लालच को व्यक्तित्व की एक विशेषता के तौ
र पर माप सकते हैं। और लोगों के भीतर के लालच को सामने ला सकते हैं। यह बलून टास्क कहलाता है। यह एक इंसान के जोखिम उठाने की इच्छा को नापता है। इस टेस्ट के प्रतिभागियों को गुब्बारा फुलाते रहने के लिए कहा जाता है। जितना बड़ा गुब्बारे का आकार होगा, उतनी ही ज़्यादा होगी उसकी क़ीमत। यहां हर राउंड में प्रतिभागी असली पैसों के लिए खेलते हैं। वो हर बार गुब्बारे को जितना फुलाएंगे, उसके फूटने का रिस्क उतना ही होगा, और फिर उनका पैसा बर्बाद हो जाएगा। हमने यहां पाया कि जो लोग लालची होना चाहते हैं वो इस काम को
करते हुए ज़्यादा रिस्क उठाते हैं। तो इसीलिए वो गुब्बारे को दूसरों से ज़्यादा फुलाते हैं। और फिर हमने देखा कि जो लालची हो रहे थे, उनके दिमाग भी एक बदली हुई प्रतिक्रिया दे रहे थे। यह ग्राफिक दर्शाता है कि हमारा दिमाग़ इनाम और सज़ा, दोनों पर क्या प्रतिक्रिया देता है। यहां टेस्ट के लिए मौजूद प्रतिभागियों में जो जितना लालची होगा, उसके सज़ा वाले दिमागी सिग्नल, उतने ही कमज़ोर नज़र आएंगे। मज़े की बात ये है कि लोग जानबूझ कर इस मानसिक स्थिति में रहना चाहते हैं। ओल्ड्स और मिल्नर के इससे जुड़े प्रयोग भी
काफ़ी रोचक हैं। दिमाग का डोपामीन सिस्टम... अगर एक चूहे के दिमाग़ की इस ख़ास जगह पर इलेक्ट्रोड्स लगाए जाएं, और फिर उसे ऐसे हालात में रखा जाए जहां वो ख़ुद एक बटन दबाकर, डोपामीन सिस्टम को सक्रिय कर सके, तो चूहा तब तक उस बटन को दबाता रहेगा जब तक वो मर ना जाए। और ऐसा माना जाता है कि इस प्रयोग के जरिए अत्यधिक लालच की कुछ जैविक प्रणाली को समझा जा सकता है। ज़्यादातर वानर प्रजाति के जीव बहुत सामाजिक होते हैं, लेकिन ये बंदर, कुछ अलग हैं क्योंकि ये बहुत सहिष्णु भी हैं, हर जगह एक हाइरार्की होती है और सभी
को पता है कि उसमें सबसे ऊपर कौन है, और सबसे ऊपर वाले को सबसे ज़्यादा हासिल होगा। नरों को प्रजनन के ज़्यादा मौके मिलते हैं, मादाओं को ज़्यादा संसाधन मिलते हैं, लेकिन फिर भी यहां इतनी सीधी हाइरार्की नहीं है कि सबसे ऊपर वाले को ही सबकुछ मिले। और आप इन बंदरों में एक ऐसी बात भी देखेंगे जो इस प्रजाति के हर जीव में नहीं होती, वह है दूसरे के पास मौजूद चीज़ का सम्मान। मसलन हम यहां देख सकते हैं कि जब पहले को ज़्यादा और दूसरे को कम मिलता है तो कैसी प्रतिक्रिया होती है? और जब इसका उल्टा होता है तो कैसी प्
रतिक्रिया होती हैं? और इसे प्रयोग के ज़रिए समझ सकते हैं। ये प्रयोग काफ़ी आसान है। आप दो बंदरों या उस प्रजाति के जीवों को अगल-बगल बिठा दीजिए और दोनों से बातचीत करते रहिए। अब आपको एक आसान सा टास्क करना है। आप उन्हें एक टोकन दीजिए, जिसे वो वापस करेंगे और यह काम पूरा करने के लिए आप उनको इनाम दीजिए। लेकिन गौर करने वाली बात ये है, कि जब उसके पार्टनर को उसी काम के लिए उससे ज़्यादा अच्छा इनाम मिलता है, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी होती है? नाला? ये लो... देखो ये! यह अलग अलग बर्ताव की वजह से भी हो सकता है, य
ानी ‘देखो मेरे पार्टनर को मुझसे बेहतर इनाम दे दिया’। या फिर वो एक सामान्य लालच भी हो सकता है, जैसे कि देखो, ‘वहां बढ़िया खाना है और मुझे वही चाहिए’। नाला, क्या तुम्हें वो अंगूर चाहिए? विकासवाद के नज़रिये से देखें तो, ज़्यादा से ज़्यादा संसाधन हासिल करने वाले जिस व्यवहार को हम लालच कह रहे हैं, वो ज़रूरी है। इंसानों के मुक़ाबले ज़्यादातर जानवर, काफी मुश्क़िल हालात में जीवन-यापन करते हैं। तो ज़्यादा से ज़्यादा संसाधन न जुटाना, उनके लिए मौत का ख़तरा बन सकता है। लेकिन वहीं मानव समाज को लेकर मेरा मान
ना है कि, वो न सिर्फ ज़्यादा से ज़्यादा इकट्ठा करने के लालची हैं, बल्कि वो ये काम बिना दूसरों की परवाह किये करते हैं। और मुझे नहीं लगता कि यह बात जानवरों पर लागू होती है। जर्मनी की लोक कथाओं के अनुसार नार्सिसस नाम का व्यक्ति, एक झड़ने के किनारे आया, जिसका पानी शीशे की तरह साफ़ था, जिसमें उसे अपनी शक़्ल दिखायी दी। जब उसने अपना प्रतिबिम्ब देखा तो वो अपनी ही ख़ूबसूरती से इश्क़ कर बैठा। हम इंसानों की भी इच्छा होती है कि दुनिया की नज़रें हम पर रहें। आज व्यक्ति ही हर चीज़ का पैमाना है। और इसीलिए हम
पहचान और आत्मसम्मान के लिए लालायित रहते हैं। हम रिश्ते, अनुभव, तस्वीरों से लेकर बड़ी गाड़ियां, जूते, रिकॉर्ड्स आदि जुटाते हैं। क्या हम भी उस नार्सिसस की तरह ही अपने ही अहंकार में खोए हुए हैं? व्यापार में सफलता हासिल करना एक कला है और जब आप ऐसा कर लेते हैं, तब आप ख़ुद को ऐसे मुकाम पर ले जाते हैं कि लोग आश्चर्य करते हैं। "हमारे दाम क्या हैं ..... नहीं अभी अंतरराष्ट्रीय नहीं, हम अपने दाम की बात करते हैं.... तो ये है 700 वर्ग मीटर प्रति फ्लोर, जिसको 8 फ्लोर से गुणा कर दें, फिर गुणा करें हमारे लोकल
दाम से जो है 1000 के आसपास.... तो यह आपको पड़ेगा 56 लाख का..." मैं बताता हूं, मेरी सोच एकदम सरल है एक उद्योगपति और एक अपराधी के बीच में बस ज़रा सा ही फ़र्क़ होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि मैं जो भी करूं, कोई न कोई तो कहेगा कि मैंने बेईमानी की है। तो हमारे जैसे दुनिया के सारे बिज़नेसमैन, चाहे वो बिल गेट्स हों, रिचर्ड ब्रैनसन हों, हम सभी को लोग अपराधी के रूप में देखते हैं, लेकिन मैं समझता हूं वो इसलिए, क्योंकि हमारी सोच दूसरों से काफ़ी आगे है। राष्ट्रपति मुगाबे मेरे भाई हैं। अगर यूरोपीय नजरिए से कहें
गे तो मैं उनका भतीजा हूं, लेकिन अफ्रीकी नजरिए से, मैं उनका भाई हूं। हम ऐसी दुनिया नहीं बना सकते जहां सिर्फ़ आलोचक हों। हम चाहते हैं कि आलोचक कम हों, काम करने वाले ज़्यादा। इस तरह से दुनिया की अर्थव्यवस्था रहने लायक होगी। मेरे घर में स्वागत है। मैं आपको यह जगह दिखाना चाहता हूं और साथ ही मेरी उपलब्धियां भी, जो मैंने इतने सालों में हासिल की हैं। और आप जानते हैं... मेरे पुराने ऑफिस के पास एक स्कूल है, जिन्होंने मुझे ये अवॉर्ड दिया, स्कूल की बिल्डिंग का हिस्सा बनाने के लिए... और फिर एक संस्थान ने मा
नवतावादी कामों के लिए मुझे सम्मानित करते हुए ये पुरस्कार दिया। और ये जो अवॉर्ड है ये बेफ्टा (BEFTA) की तरफ़ से मिला है ये पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार के कार्य करने और सशक्तिकरण के मुद्दों पर काम करने वाले लोगों को दिया जाता है। ये मुझे मिला। यह मेरी बैठक वाली जगह है... यहां हम दोस्तों और परिवार के साथ बैठते हैं, मुलाक़ात करते हैं, यहां राजनीति, अर्थव्यवस्था और परिवार से जुड़ी चर्चाएं भी होती हैं। यहां इस बंगले में सबसे ऊपर एक हेलीपैड भी है। तो जब यहां ज़्यादा सर्दी होती है तो हम ही
टर चला देते हैं, तो ये है हीटर। यह कमरा मुगाबे डाइनिंग रूम कहलाता है। जब मैं इस घर की मरम्मत करवाता हूं तो, यही एक कमरा है जिसकी मरम्मत मैं नहीं करवाता। क्योंकि इसके जरिए मेरा, राष्ट्रपति से एक भावनात्मक जुड़ाव हुआ। एक ऐसा शख़्स जिसे दौलत से नहीं ख़रीद सकते। बस इतना ही... मैं जानता हूं मैं कहां से उठकर यहां तक आया। मैं एक सब्ज़ी का ठेला लगाता था। मेरा बिस्तर थी जमीन, जी हां मैं कंकड़ वाली ज़मीन पर सोता था, एक कंबल अपने नीचे और दूसरा शरीर पर ओढ़ कर। अब ये इतिहास है। और इसीलिए मैं दुनिया को ये दि
खाना चाहता हूं कि मुझे अच्छी जिंदगी जीनी है। रेस ट्रैक और ऐसी सभी तरह की सार्वजनिक प्रदर्शन वाली जगहें हमेशा से लोगों को आकर्षित करती रही हैं। रेस ट्रैक का एक पहलू तो सट्टा लगाना है। और इसका दूसरा पहलू है अपने साथियों के सामने ख़ुद की हैसियत दिखाना। यहां कौन ज़्यादा बोली लगा सकता है, ये उसके ओहदे या उसके सामर्थ्य से तय नहीं होता। बल्कि तय होता है उसके कपड़ों से, उसके बातचीत करने के ढंग से और वो कैसे ख़ुद को ज़्यादा धनवान या महत्वपूर्ण साबित करता है, और अपने आस-पास घिरे लोगों की तुलना में मृत्यु
से कितना सुरक्षित है। यह एक तरह से वानर प्रजाति में निर्धारित हाइरार्की जैसा ही है। हमें हीरो बहुत पसंद आते हैं और इसीलिए हम किसी न किसी चीज़ में सर्वश्रेष्ठ बनने की होड़ में रहते हैं, फिर चाहे वो 10 मिनट में सबसे ज़्यादा समोसे खा लेने जैसा काम ही क्यों न हो। अमेरिका नंबर वन हैं, साइंस या साक्षरता जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नहीं, बल्कि डिप्रेशन यानी अवसाद में। ये कैसे हो सकता है? तो ज़रा अपने आसपास नज़र डालिये और देखिए कि क्या वाक़ई हर व्यक्ति, हमारे सांस्कृतिक आदर्शों का वास्तविक रूप में नि
र्वहन कर पा रहा है। अगर आप मर्द हैं, तो आपका मूल्य इस बात से तय होता कि आप कितना कमाते हैं। और यही तथाकथित 'अमेरिकी ख़्वाब' है कि अगर आप कठिन परिश्रम करेंगे तो एक दिन लेब्रोन जेम्स, वॉरेन बफेट या बिल गेट्स की तरह अमीर बन सकते हैं। लेकिन वास्तविक तौर पर, हर करोड़पति के पीछे हज़ारों लाखों पार्ट-टाइम कर्मचारी बिना फायदे के वॉलमार्ट जैसी जगहों पर दिन-रात काम करते हैं। और महिलाओं के लिए भी ऐसा ही है, लेकिन उनके ऊपर एक अलग सांस्कृतिक दबाव है। हम महिलाओं को सिखाते हैं कि उन्हें सुंदर दिखने के लिए बेहद
छरहरा और बिल्कुल फिट दिखना होगा। यानी किसी ने आप पर गौर नहीं किया है तो, मतलब आप मोटी हैं। और इसके साथ ही आपको हमेशा जवान दिखना है, जो जैविक तौर पर नामुमकिन है। कमाल है ना.... हम ऐसे आदर्शों को मानते हैं, जिन्हें निभाना संभव नहीं है। अगर आप कहते हैं कि आप सच्चा बनना चाहते हैं, तो आपको अपने जीवन से 'मैं' को हटाना होगा। और 'मैं' से मेरा मतलब है 'मैं ऐसा हूं', 'मैं वैसा हूं', 'मैं ऐसा कर सकता हूं'। 'हां मैंने ऐसा पिछले साल किया था', 'अरे मैं वो कर सकता हूं', 'मैं उससे बेहतर हूं'। यानी ये कि जित
ने 'मैं' हैं, सब अहंकार हैं। दक्षिण अफ्रीका में ऐसे बहुत से लोग हैं, श्वेत और अश्वेत दोनों ही, जो अहंकारी होते हैं, और उनका ये अहंकार सर चढ़कर बोलता है। और ये वो लोग हैं जिन्हें हम आगे चलकर देश के नौकरशाहों के रूप में देखेंगे। अगर आप एक ऐसे ग़रीब इलाके में अपनी मर्सिडीज़ बेन्ज़, रोल्स रॉयस जैसी गाड़ियों के साथ घूमते हैं, जहां लोग खाने तक के लिए तरस रहे हैं, तो इससे घटिया काम आप कुछ नहीं कर सकते। आप वहां उस अहंकार के साथ जा रहे हैं कि–“देखो मैं तुमसे ज़्यादा दौलतमंद हूं”, “तुम लोग मेरी हैसियत त
क कभी नहीं पहुंच सकते।” ऐसे लोग भटक चुके हैं। अगर मुझे अपने अहंकार पर ज़ोर देना है, तो ऐसा करने का एक ही तरीक़ा है- लालच। मुझे लगातार अपने भीतर कुछ न कुछ भरते रहना पड़ेगा, जो मेरे अहंकार को ज़िंदा रख सके। ये भौतिक चीज़ें हो सकती हैं, या फिर आध्यात्मिक भी। जैसे कि “मैं बहुत महत्वपूर्ण इंसान हूं”, इस तरह के ख़्याल। या फिर –“मेरी दौलत, शोहरत, ओहदे के कारण मेरी बहुत अहमियत है”, या इसी तरह के विचार। हमारी पूरी आधुनिक दुनिया इसी पर टिकी है। लालच लोगों का बर्बाद करता है। क्यों? क्योंकि वो हमें अलग-थलग
कर देता है। और यह नशे की तरह है। जितना ज़्यादा मैं इसका इस्तेमाल करूंगा, उतना ही ज़्यादा मुझे इसकी इच्छा होगी, क्योंकि मेरे पास जो है उससे मैं संतुष्ट नहीं रहूंगा। तो मुझे वो संतुष्ट नहीं करता जो मेरे पास है, बल्कि लगातार हासिल करने की लालसा संतुष्ट करती है। सदियों से धर्म का मानना है कि लालच मनुष्य की प्रवृत्ति है, लेकिन यह हमारा विनाश भी है। प्राचीन काल से ऐसे कई लोगों की कहानियां चली आ रही हैं, जिन्हें जितना भी मिला, वो संतुष्ट नहीं हुए। जैसे कि राजा मिडास राजा मिडास ने भगवान से वरदान मां
गा था कि वो जिसे छुए वो सोना बन जाए। लेकिन इस वरदान से उसका खाना-पीना भी सोने में बदल गया। ऐसा लगा कि वो भूख और प्यास से मर जाएगा। सोने और दौलत को हमेशा से सर्व शक्तिशाली और अनंत काल तक चलने वाली चीज़ें माना गया है। लेकिन मैं यह पूछता हूं कि आख़िर दौलत इतना शक्तिशाली प्रलोभन क्यों है? मैंने बैंकिंग को करियर के रूप में चुना। मैं एक प्रशिक्षित अकाउंटेंट हूं। मैं यूलियस बेयर बैंक के लिए काम करता था। मैं पहले ज़्यूरिख, और फिर केमन आइलैंड्स में कार्यरत था, जिसे टैक्स का स्वर्ग कहा जाता है। मैं प्रो
मोशन पाकर अनुपालन अधिकारी बना, यानि मैं बैंक का क़ानूनी ज़मीर था। एक ख़ास तरह का लालच आपके भीतर डाला जाता है। और मैं मानता हूं ऐसा मेरे साथ भी था। आप केवल पैसों के नज़रिये से हर चीज़ को देखने लगते हैं। आपकी आंखों के सामने रुपये दिखने लगते हैं और आपके मन में भी। आपके जीवन में बस वही मायने रखता है। बहुत सारा फायदा, और यह सुनिश्चित करना कि कभी न पकड़े जाओ। और मैंने भी इसी तरह से काम किया। एक कम्प्लायंस अधिकारी के तौर पर मुझे मालूम हुआ कि हमारे कई अपराधी ग्राहक थे। इसमें ओसामा बिन लादेन जैसे नाम थे,
मैक्सिको के बड़े ड्रग व्यापारियों के नाम थे। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक आपराधिक संस्थान के लिए काम कर रहा हूं। यह बैंक कर-चोरी और फ्रॉड जैसे अपराधों में शामिल था। मुझे यह नैतिक तौर पर ग़लत लगा और मैंने यह मामला प्रबंधन के सामने रखा। फिर हमें धमकियां मिलने लगीं। मेरे पूरे परिवार को तुरंत ही केमन आइलैंड्स छोड़कर जाना पड़ा। केमन आइलैंड्स में कुछ स्विस बैंकर्स की हत्या भी हो चुकी थी। आंशिक रूप से, मेरा उस बैंकिंग सिस्टम को छोड़ने का निर्णय, नैतिक आधार पर था। लेकिन ज्यादा बड़ी बात यह कि मुझे अहसास हु
आ वो मेरे ख़िलाफ़ हो चुके हैं। केमन आईलैंड्स में जो धमकियां मुझे मिलीं, जिस तरह से मुझे नौकरी से निकाला गया। बैंक प्रबंधन ने बोला कि अगर उनके ख़िलाफ़ मैंने क़ानूनी कार्रवाई की, तो वो मुझे बर्बाद कर देंगे! बैंक वालों ने मेरे पीछे प्राइवेट डिटेक्टिव भेजे। मैं जब भी काम पर जाता, तो कोई न कोई मेरा पीछा करता था। मुझे अपने ऑफिस जाने का रास्ता बदलना पड़ा। पीछा करती काली गाड़ी देखकर ही मुझे चिंता होने लगती थी। मैं बुरी तरह से भयभीत हो चुका था। मुझे आत्महत्या करने का भी ख़्याल आया। वो मुझे पागल कर देना
चाहते थे। सरकारी अभियोक्ताओं को इस पूरे मामले की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। यह एक राजनीतिक समस्या है। कुछ भी कार्रवाई करने से बैंक के आपराधिक ग्राहक परेशान हो जाते। उन्हें लगता कि वे अब सुरक्षित नहीं हैं। इसी वजह से प्रशासन ने बैंक के ख़िलाफ़ एक्शन नहीं लिया। बल्कि वे उसके पीछे पड़ते हैं, जो सच को सामने लाता है। मैंने 217 दिन जेल में बिताये। पहले 30 दिन 2005 में और बाक़ी के 2011 में। और दोनों ही बार मुझे कालकोठरी में बंद किया गया, जहां मैं हर दिन 23 घंटे तक अकेला रहता था। कई क़ै
दी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते थे और दरवाज़ा पीटते थे। स्विट्ज़रलैंड जैसे ज़्यादातर देश अपने सोने की मुर्गियों को सुरक्षित रखते हैं। स्विट्ज़रलैंड के लिए सोने की मुर्गी है, उनका बैंकिंग रहस्य। इसीलिए यूलियस बेयर जैसे बैंकों की कभी कोई छानबीन नहीं करेगा, भले ही सरकारी याचिकाकर्ताओँ को मालूम रहे कि बैंक ने अमेरिकी टैक्स दफ्तरों के साथ धोखा किया है। लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते, सरकारी याचिकाकर्ता कभी इस बात की तफ़तीश नहीं करेंगे। हमारी चुनौती थी हम ऐसा परीक्षण कैसे तैयार करें जो एक स्टॉक मार्केट ब्र
ोकर के व्यवहार से मिलता-जुलता हो? हमने टेस्ट में शामिल प्रतिभागियों की दिमाग़ी गतिविधि जांचने लिए, एम्आरआई का प्रयोग किया। हम इसके ज़रिये, गहराई से मस्तिष्क की वो आकृतियों को देख सकते हैं, जो इनाम की प्रतिक्रिया दिखाती हैं। हमारे प्रतिभागी यहां स्टॉक ट्रेडिंग गेम खेलते हैं। वो यह तय करते हैं कि ज़्यादा मूल्य का निवेश करना है या कम मूल्य का। इस खेल के दौरान वह शेयर के घटते बढ़ते दामों पर भी नज़र रखते हैं। हमें इससे मालूम चला कि लालची लोगों के दिमाग के सज़ा और पैसे गंवाने जैसे विचारों वाले हिस्
से में काफ़ी कम प्रतिक्रिया दिखी। यह प्रक्रिया एक तरह से दिमागी निषेध को बढ़ा देती है। इस विचार के आधार पर कि दुनिया में औसत लोग जोखिम नहीं उठाते, वित्तीय क्षेत्र में ज़्यादातर ऐसे लोग ही नौकरी पर रखे जाते हैं जो जोखिम उठाना चाहते हों। इसके लिए, बोनस देने और लक्ष्य आधारित नौकरी जैसे तरीके अपनाए जाते हैं। मुझे लगता है कि अगला वित्तीय संकट कभी भी आ सकता है। जब मैंने पहली बार वॉरन बफेट और बिल गेट्स के बारे में जानना शुरू किया था, तब उनकी संपत्ति लगभग 30, 40 अरब डॉलर के करीब थी, लेकिन अब वो करीब 7
0 अरब डॉलर हो चुकी है। क्या आपको मालूम है कि अगर आपके पास 1 अरब डॉलर भी हों, तो आप हर रोज़ 10 हज़ार डॉलर खर्च करते हुए, 273 सालों तक जीवन गुजार सकते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या कोई 273 सालों तक जीता है? तो यानि सामान्य जीवन के साथ, आप उन 1 अरब डॉलर से रोज़ करीब 30 हजार डॉलर खर्च कर सकते हैं। बहुत से लोग तो इससे भी ज़्यादा कमाते हैं। फिर भी कोई नहीं कहेगा कि उसे ज़्यादा पाने की इच्छा नहीं है। अगर मुझ जैसे लोग न कमाएं, तो सरकारें चलाने के लिए टैक्स कहां से आयेगा। तो इसीलिए, जो लोग ज़्यादा कम
ाते हैं, वो सिस्टम को चलाने में मदद करते हैं। और मैं उन्हीं में से एक हूं। अधिक प्रगति, अधिक संपन्नता, अधिक संतुष्टि। ये उन लोगों का विश्वास है जो हमारा अच्छा सोचते हैं। और हम ख़ुशी से उनका य़कीन कर लेते हैं। हम अपना काम करते हैं। क्या हम ख़ुशियां ख़रीदने की
आशा कर रहे हैं? बहुत सारे अमेरिकी और यूरोपीय लोग अब भगवान पर यक़ीन नहीं करते हैं। लेकिन आपको किसी पर तो यक़ीन करना होगा। आप जानते हैं, हमारे कई विश्वास मृत्यु के डर को कम करते हैं लेकिन इसके अहसास में डर भी छिपा रहता है। मौत के भय को दूर क
रने के लिए हमें कुछ करना होता है। और एक चीज जो हम कर सकते हैं वो है बहुत सी बेकार की चीजें खरीदना। जब तक हम बोलना सीखें, हमारे सामने जूतों और कपड़ों के ब्रांड्स के विशाल विज्ञापन होते हैं। जैसे नाइकी चेक और गोल्डन आर्चेस हम नहीं चाहते हुए भी इनके बारे में जान जाते हैं। आज हमारे बच्चे जिस दुनिया में बड़े हो रहे हैं, वो मेरे और आपके बचपन की दुनिया से अलग है। उनका दिमाग़ भी उसी हिसाब से बदल रहा है। उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली कंपनियां, अरबों रुपये सिर्फ इस बात पर ख़र्च करती हैं कि कोई भी बच्चा बाज
़ार की इस भागमभाग से छूट न जाए। यानी हम एक अमीबा से अलग नहीं हैं। यानी हम हर उस चीज़ से चिपकना चाहते हैं जो हमें लाइफस्टाइल और मज़ा देती है और साथ ही हर उस चीज़ से दूर भागते हैं जो इस प्रक्रिया को ख़तरा पहुंचाती है। यहां हर तरफ जूते ही जूते दिखेंगे! कभी-कभी आप जूते पहनना भी नहीं चाहते लेकिन फिर भी रख लेते हैं। जैसे ये, मैंने इसे एक बार भी नहीं पहना, और ये यहां शायद 3 साल से रखा है। नया का नया। और ये वाला देखिए, ये भी एकदम ब्रैंड न्यू, आज तक नहीं पहना... ये एक डिज़ाइनर शू है। मैं सीमित जीवन नहीं
जीना चाहता, क्योंकि बाइबिल में कहा गया है कि हर चीज़ पर आपका प्रभुत्व होना चाहिए। और यही बात मुझे प्रेरित करती है। बाइबिल में किसी को भी ग़रीब नहीं बताया गया है, आप चाहें तो पढ़ लीजिए.... अब्राहम, मूसा बाइबिल में हर व्यक्ति अमीर है। बाइबिल ग़रीबी की बात नहीं करती। मेरे मायने में बाइबिल, धन अर्जित करने की मशीन जैसी है। हर छंद, हर एक छंद में धन की बात लिखी है। और लोगों को इसे समझना होगा। मुझे ख़ुशी है कि इस तरह का एक ग्रंथ है! मेरे हिसाब से भौतिक समाज की मुख्य बात ये है कि वो हमेशा यह एहसास दिलाता
रहता है कि आपके पास किसी चीज की कमी है। आपको कुछ और भी चाहिए। हम सब इस प्रक्रिया में हिस्सेदार हैं। आप सिर्फ सामान बेचने वालों को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते। यह बिल्कुल डिमांड और सप्लाई की तरह हैं। यहां बेचने वाले और ख़रीदने वाले एक दूसरे की मदद करते हैं। और हम इस चक्र में घुस चुके हैं, जिससे बाहर निकलना मुश्क़िल है। “24 घंटों की बात करें या कहूंगी 23 घंटे 55 मिनट की, तो समसारा यानि जीवन चक्र कहता है देखो, तुम कुछ भूल रहे हो।” और यहां 'समसारा' से मेरा मतलब है, आदतों का चक्र। और आप हमेशा सोचते
रहेंगे कि वो मुझे बुला रहे हैं। ये जीवन चक्र मुझे बुला रहा है। मुझे वहां जाना चाहिए, कार ख़रीदनी चाहिए, घर ख़रीदना चाहिए, एक साथी होना चाहिए, व्यस्त रहना चाहिए, परेशान रहना चाहिए। मैं तो इसे यही कहूंगी। हां आप कुछ और कहेंगे, आप इसे कहते हैं "कुछ बनना, सक्षम होना, अपनी पहचान बनाना।" जहां असंतुष्टि होती है, वहां आप हमेशा ज़्यादा पाना चाहते हैं। यह संघर्ष जीवन में काफ़ी असुरक्षा की भावना और अप्रसन्नता पैदा करता है। ज़्यादा चीज़ें हासिल करने का एक बड़ा कारण है कि इससे लोगों को खुशी मिलती है। हमारे भ
ीतर न्यूरो-केमिकल और मनोवैज्ञानिक, दोनों तरह की गतिविधियां होती हैं, जो हमें लगातार ज़रूरत से ज़्यादा अर्जित करने को विवश करती रहती हैं। बारिश के मौसम में एक दिन बाहर निकल कर चाय पीना एक अलग बात है, और 75वीं जोड़ी जूते ख़रीद लेना, बिल्कुल ही अलग बात है। चाहे कितना सोच लें, आपको वो जूते ख़रीदने की वजह नहीं मिलेगी। मगर फिर भी इन्हें ख़रीदने से आपको ख़ुशी होती है। यहां अमेरिका में दिखावे का चलन है। जैसे कि यहां के रईस इलाके पार्क एवेन्यू पर सबकी 16वीं बर्थ डे पार्टी पर... पिछले साल सभी को आईपॉड द
िए गए, तो इस साल वो आईपैड देंगे और इस साल हम भी ये करने जा रहे हैं। यानी हर बार, पिछली बार से बेहतर करने का चक्र चलता रहा है। एक उपभोक्ता बनने में कोई बुराई नहीं है। मेरा मतलब, हमें जीवित रहने के लिए उपभोग तो करना ही पड़ेगा। लेकिन हमने पूरी तरह से ख़ुद को चीज़ों से इतना घेर लिया है कि हम उसकी क़ैद में आ चुके हैं। हम कंज्यूम करते हुए, ख़ुद किसी के कंजप्शन बन गए हैं। जब तक पृथ्वी पर पेट्रोलियम की आख़िरी बूंद बाक़ी है, हम तब तक सामान ख़रीदते रहेंगे। एक फ्लेमिश कहावत है कि दुनिया घास का बागीचा है और
हर इंसान इससे जितनी चाहे, उतनी घास उखाड़ लेता है। हम मनुष्यों में अर्जित करने की इच्छा होती है। लेकिन सवाल ये है, कि क्या हम, किसी से बिना कुछ छीने भी, कुछ अर्जित कर सकते हैं? 1657 में पुर्तगाली, मोज़ाम्बिक़ के रास्ते यहां आए। वो यहां से सोना ले जाने वाले पहले लोग थे। अफ्रीका एक खुले खेत की तरह था, जहां कोई भी कहीं से आकर, खनिज पदार्थ निकालकर, अपने साथ ले जाता था। आप कल्पना कीजिए, एक ऐसा देश जो ज़िम्बाब्वे से 10 गुना बड़ा है, और उस पर बेल्जियम में बैठा एक व्यक्ति राज करता है, और वो उसे अपना खेत
मानता है। यह अफ्रीका महाद्वीप पर अन्याय था। जी हां.... हम आदर्शों पर अडिग हैं। हमें संसाधनों पर स्वामित्व का पूरा अधिकार है, हमारी भूमि नीति भी सही थी... मेरी नज़र में उन्होंने बहुत कुछ किया है... मुगाबे ने सुनिश्चित किया कि यहां के लोगों को उनकी ज़मीन मिले, जो उन्हें मुफ़्त मिली। और वो पैदावार कर रहे हैं। भले ही हमने बहुत अच्छी शुरुआत न की हो, लेकिन लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं। और ख़ासकर वो एक फैसला जो उन्होंने लिया। “समाज में बराबरी होनी चाहिए, हर इंसान के साथ बराबरी। भले ही वो कहीं भी रहे
, कितना भी ग़रीब हो... आर्थिक प्रतिबंध, हां- हो सकता है ये मेरे शरीर को बर्बाद करे, मुझे भूखा रखे, फिर भी मैं अपने इस आदर्श पर अडिग रहूंगा कि उपनिवेशवाद ग़लत है... और ज़िम्बाब्वे अब कभी उपनिवेश नहीं बनेगा।” जब ईसाई मिशनरी अफ्रीका पहुंचे, तो अफ्रीकी लोग वहां कितने समय से रह रहे थे? हमेशा से। वो वहां बसने वाले पहले मनुष्य थे, है ना। और जब मिशनरी वहां गए, तो क्या उन्होंने ये कहा कि हम आपसे आपके हजारों साल पुराने रीति रिवाज़ सीखना चाहते हैं? बल्कि उन्होंने क्या कहा? "आप सब अब कैथोलिक बन जाओ, नहीं तो
हम आपको मार देंगे।" उन्होंने सीधा कह दिया "हम सबसे ऊपर हैं, बाकी कोई कुछ नहीं। यह सब करना बंद करो और कैथोलिक बन जाओ। बात ख़त्म" हम अंदर ही अंदर जानते हैं कि पश्चिमी तौर-तरीके वाली जिंदगी के लिए, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमें दूसरों का ग़लत फायदा उठाना पड़ता है। युद्ध और उत्पाद, का हमेशा करीबी रिश्ता रहा है। हम जिस निर्दयता से उपभोग करते हैं, उसकी पूर्ति, दुनिया के एक बड़े हिस्से पर बिना आधिपत्य जमाए नहीं की जा सकती। कहा जाता है कि मनचाहे समय पर आप एक केला न खा पाएं या कॉफ़ी न पी सकें, तो आप
अमेरिकी नहीं कहलाएंगे। पर इसके लिए मुझे केला उगाने और कॉफी उगाने वाले लोग तो चाहिए ही होंगे। और हो सकता है उन लोगों को पेट भरने के लिए केले और कॉफ़ी से अलग कुछ और चाहिए हो। लेकिन हमें इससे क्या, हम तो वहां सेना भेजकर अपना व्यापार स्थापित कर ही देंगे। सेना और दुनिया की कुछ 500 सबसे अमीर कंपनियों के मालिकों का आपस में पूरी तरह से या आंशिक ही एक गहरा जुड़ाव है। यह पूरी जगह खनिज से भरपूर है। मैं आपको नीचे ले जाकर डेविड लिविंगस्टोन की मूर्ति दिखाना चाहता हूं। वो शख्स जिसने यह जगह खोजी थी। हम यह नहीं
कह सकते कि व्यापार करना उपनिवेशवाद है। अगर अमेरिकी, ब्रिटिश या जर्मन यहां की संपत्ति ले जाते हैं, तो फिर चीन का पैसा यहां आना चाहिए। रूस का पैसा आना चाहिए। असल में बात ये है कि अगर हमारे पास इतनी बड़ी पूंजी न हो, जितनी चीन, अफ्रीका में लेकर आ रहा है, तो हम इन खनिजों को निकाल ही नहीं सकेंगे। और क्या हमें इस पैसे पर अभिमान होना चाहिए? यह कहना भी ग़लत होगा कि सिर्फ़ अफ्रीका में ही शोषण होता है। ज्यादातर अरब देशों में ग़ुलाम हैं। यहां तक कि यूरोप अमेरिका जैसे देशों में भी ऐसे लोग हैं जो इंसानों से ग
ुलामी करवा रहे हैं या दूसरे ग़लत तरीक़ों से उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। तो यह सब बंद होना चाहिए क्योंकि इंसानों के साथ ऐसा करना सरासर ग़लत है। चाहे आप किसी भी तरह की ज़ंजीर में बंधे हों, आपको ज़ंजीर तोड़ने की आज़ादी मिलनी चाहिए। बाइबिल में बाबेल की कहानी के अनुसार, मनुष्य एक ऐसी मीनार बनाना चाहता था जो धरती से स्वर्ग लोक तक जाए। ईश्वर ने उसे दंड देते हुए उसके दिमाग में भाषाओं की अव्यवस्था पैदा कर दी। बाबेल की मीनार यानी विलासिता और अधिकता का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक। जब मनुष्य भगवान बनने की कोशिश करता है
तो बुरी चीज़ें होती हैं। रुडॉल्फ एल्मर ने 1994 में बेयर बैंक में काम करना शुरू किया कुछ ही वक़्त के बाद उन्हें वहां गड़बड़ियों का पता चला और उन्होंने उच्च प्रबंधन को जानकारी दी। उन्होंने पूछा कि क्या बोर्ड की जिम्मेदारी है। लेकिन बेयर बैंक का प्रबंधन उनकी शिक़ायत से ख़ुश नहीं हुआ। एल्मर को नौकरी से निकाल दिया गया जिसके बाद वो व्हिसिलब्लोवर बन गए। उन्होंने टैक्स से जुड़ी जानकारी वाली सीडी, स्विट्ज़रलैंड कर विभाग को सौंप दी। उन्हें लगा था कि विभाग कार्रवाई करेगा। मैं यहां ऑफशोरिंग की बात करना चाहू
ंगा। यहां मेरा मतलब सिर्फ टैक्स हैवन कहलाने वाली जगहों से नहीं है बल्कि उनसे भी है जो गुप्त समझौतों और रहस्यों के गढ़ हैं। यह कैमन आईलैंड्स में स्थित अग्लैंड हाउस है, जो 19 हज़ार कंपनियों का अधिकृत पता है। जैसा कि राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था, "या तो वो दुनिया की सबसे बड़ी ईमारत हो सकती है, या फिर सबसे बड़ा घोटाला।" ज़ाहिर है, ये सबसे बड़ा घर तो नहीं है। मौजूदा अनुमान कहता है, करीब 21 या शायद 31 अरब अमेरिकी डॉलर, ऐसे ही ऑफशोर में छुपे हैं। मैं डरा हुआ हूं, क्योंकि मैं उस सिस्टम का हिस्सा था।
और मुझे पता है कि वो किस तरह के लोग हैं। उनकी जिंदगी के रास्ते लाशों से पटे हैं। मैं पूंजीवाद का विरोधी इसलिए बना क्योंकि मुझे दिख रहा है कि इसने दुनिया में भयानक हालात पैदा कर दिए हैं। पश्चिमी देशों ने विकासशील देशों का फायदा उठाकर ख़ुद को समृद्ध बना लिया है। जो मेरे हिसाब से मानवता के ख़िलाफ़ है। जो मौजूदा समय में सत्ता पर काबिज़ हैं, वो हर मुमकिन कोशिश करेंगे कि व्यवस्था बरकरार रहे, इसे कोई बदल न सके। धनकुबेरों का ये घमंड कई वजहों से स्वाभाविक है। एक ये कि हम लोगों के मन में उनके प्रति काफ़ी
सम्मान रहता है जिनके पास बेतहाशा पैसा बनाने की क्षमता होती है। इन्हें पूजने की दूसरी वजह यह है कि हमें ये सब जादुई लगता है, कि पैसा बनाने वाले, किस तरह बनाई संपत्ति से और पैसे बना लेते हैं। और फिर आख़िर में मुझे ये लगता है कि आज के सेक्युलर संसार का, नया भगवान पैसा बन चुका है। मैं नहीं कहता कि लोग अमीर नहीं होने चाहिए। आप मेहनत करके उस मुकाम तक पहुंचे, ये आपका अधिकार है। लेकिन कुछ लोगों को तो कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता, वो बस समाज और दुनिया से लिए चले जा रहे हैं और इससे दिक्कतें पैदा होती हैं। राजा
ओं के शासन काल में, वो महलों में बैठ कर दुनिया चलाते थे, उन्हें सोने की क़ीमत पता होती थी। जानते थे कि मेरे पास ये जितना होगा, मैं उतना ही किसी चीज़ को हासिल करने में समर्थ रहूंगा। और इसी तरह ये बढ़ता है। और वो कोशिश करते थे कि ग़रीब इंसान और ग़रीब होता रहे। हमने उस दौर में ये देखा और आज फिर हम ऐसा देख रहे हैं। मुझे कोई लैंबॉर्गिनी नहीं चाहिए, मुझे बड़ा बंगला नहीं चाहिए, मैं बस साधारण चीज़ें चाहता हूं ... मिलना-जुलना... बातें करना... हम पैसों के बिना ज़िंदगी नहीं जी सकते और प्यार के बिना भी नहीं
जी सकते, क्योंकि हम दूसरों से प्यार करेंगे तभी तो वो हमें भी प्यार करेंगे। आपको पैसा तो चाहिए ही ताकि आप वैसे जी सकें, जैसे आप जीना चाहते हैं। राजनेता-उनमें से ज़्यादातर लालची हैं क्योंकि खासकर यहां दक्षिण अफ्रीका में देखेंगे, तो आपको बहुत भ्रष्टाचार दिखेगा। ग़रीब लोग, जो ज़्यादातर वक़्त अपने जैसे ग़रीब लोगों से घिरे रहते हैं, उन्हें इतना दुख नहीं होता। जब ग़रीबी को बेतहाशा अमीरी के साथ रखा जाता है, तब वो अवसाद और परेशानी पैदा करता है। कई लोग कहते हैं यह अच्छी बात है कि जो लोग ख़ुद के बारे में
सोचते हैं, वो अपनी इच्छा के मुताबिक धन अर्जित करते हैं। जैसे समुद्री ज्वार नावों को उठा देता है और कुछ लोगों के पास दूसरों से ज़्यादा है, तो यही सही। लेकिन यहां दूसरा पक्ष ये है कि मुझे नहीं लगता कि ये सही है। मैं सोचता हूं – क्या मानवता, विकासवाद की कोई ग़लती नहीं है? इस छोटे से नीले ग्रह पर प्रकृति के अजीबोग़रीब प्रयोग जैसा? क्या हम भविष्य देखने में, वाक़ई दिमाग़ी तौर पर असमर्थ हैं? ऐसी कई महान सभ्यताएं हुई हैं, जैसे कि एज़्टेक सभ्यता, इंका सभ्यता, जिन्होंने समय-समय पर ख़ुद का ही सर्वनाश किया
है। अगर आप इतिहास में बर्बाद हो चुके उन समाजों को देखें तो पाएंगे कि, उनके साथ ऐसा तब हुआ जब ऐसा लगता था कि वो अपने सबसे शानदार दौर में हैं। अगर हम सोचते हैं, धरती पर मनुष्यों की तादाद बढ़ाते रहेंगे और हर इंसान वैसा सुख भोग सकेगा, जैसा हम पश्चिम में पाते हैं, वो भी धरती को दहकते वीरान ढेर में बदले बिना, तो मेरे हिसाब से हम ख़ुद को धोखा दे रहे हैं। बेइंतहा उपभोग की हमारी लालसा, एक ऐसा उल्टा नतीजा लेकर आएगी, जिसमें हम मनुष्य वो पहले जीव होंगे, जो अपने विलुप्त होने का कारण स्वयं होंगे। यह इशारा हर
ओर छिपा है, मैं कहूंगा। यह जलवायु परिवर्तन का ग्राउंड ज़ीरो है। यह वही जगह है जहां हम बर्फ के इस बड़े भाग के सबसे करीब होते हैं। और यहीं से सब शुरू हो रहा है। 1978 में जब मैंने संयुक्त राष्ट्र में एक भाषण दिया, कि कैसे यह बर्फ पिघल रही है। जैसे ही मैंने बात पूरी की, लोगों ने खड़े होकर तालियां बजाईं और कहा अंगंगाक, एक ज़बरदस्त वक्तव्य देने वाले युवा एस्कीमो हैं। लेकिन किसी ने मेरे संदेश को गौर से नहीं सुना। मैं जहां भी जाऊं- चाहे भारत में, दक्षिण अफ्रीका में, टोक्यो में, हांगकांग में, रियो दे जने
रो में, न्यूयॉर्क, कोपनहैगन, पेरिस, बर्लिन-कहीं भी। कोई नहीं बदलने वाला, कोई भी नहीं। मेरे जन्म के दौरान इस बर्फ की मोटाई औसतन 5 किलोमीटर थी। और अब, औसतन ये 2 किलोमीटर हो गई है। इसका मतलब 3 किलोमीटर बर्फ पिघल चुकी है! जब तापमान बढ़ेगा, हर दिन एक डिग्री की दर से बढ़ भी रहा है तब इस पानी का स्तर 2 मीटर तक बढ़ जाएगा। हैम्बर्ग शहर, समुद्र तल से सिर्फ 75 सेंटीमीटर ऊपर है। लंदन की ऊंचाई भी एक मीटर से कम है। मैं चाहता था कि आपको ये बर्फ का पहाड़ दिखाऊं ताकि आप इसकी ऊर्जा को महसूस कर सकें। दुनिया के शिख
र पर मौजूद, यह बर्फ का पहाड़ समझ पैदा करता है। क्योंकि धरती मां को जो कुछ भी होगा, उसका असर या तो उत्तरी गोलार्ध पर होगा या फिर दक्षिणी गोलार्ध पर, अंटार्कटिका में। हम रबर से बने टायरों वाली गाड़ियां चलाते हैं, लेकिन बेहतरीन हाईवे रबर घिसते हैं। सड़क पर पड़े रबर के छोटे-छोटे टुकड़े कहीं तो जाएंगे। वो टुकड़े हवा में उड़ते हुए नदियों और नहरों में चले जाते हैं और आख़िर में समुद्र में पहुंच जाते हैं। फिर यहां वो बर्फ बनकर गिरते हैं। लेकिन जब सूरज की किरणें पड़ती हैं, बता दूं रबर को सूरज पसंद है। तो
यही टुकड़े बर्फ को पिघला देते हैं। ये चेहरेनुमा आकृतियां आपसे कुछ कह रही हैं। मनुष्य एक किशोर की तरह है। कल क्या होगा, उसे कोई परवाह नहीं। यह बर्फ का पहाड़ आपके देखते-देखते पिघल जाएगा। आपके मेरी तरह बूढ़े होने तक ज़्यादातर हिस्सा मिट चुका होगा। तबाही आने वाली है। ऐसी तबाही जो मैं और आप सोच भी नहीं सकते। हमेशा पानी की ही जीत होगी। प्रोमेथियस ने भगवान से आग चुरा कर मनुष्य को दी थी। इसकी सज़ा के तौर पर, ज्यूस ने ख़ूबसूरत लड़की पैंडोरा को बनाया और उसे एक बॉक्स तोहफे में दिया। आगाह करने के बावजूद, पै
ंडोरा ने वो बॉक्स खोल दिया। और उसमें से सारी बुरी शक्तियां आज़ाद हो गईं। उस बॉक्स में सिर्फ उम्मीद रह गई। मानव जाति का इतिहास रहा है कि हम भीषण समस्याओं से पल्ला झाड़ लेते हैं, जब हमें ये पता चलता है कि उसकी जड़ कहां है। यहां हमें अपने मूल्यों को सुधारना होगा ! क्या मेरे लिए ये ज़रूरी भी है क्योंकि मैं तो एक सांस्कृतिक कठपुतली हूं, जिसकी डोरियां समाज के हाथों में हैं? या क्या मैंने वाक़ई खुद से पूछा है, मैं क्या करना चाहता हूं और यह क्यों कर रहा हूं? तो, या तो आप सब छोड़ दें मायूस हो जाएं और कुछ
न करें। या फिर आप कुछ करें तो पूरे जज़्बे के साथ उसे करें। 'कल्ट ऑफ़ लेस' एक प्रोजेक्ट है जो मैंने अपने लिए शुरू किया था, ताकि हर वो चीज़ छोड़ दूं जो मेरी है। क्योंकि मैंने पाया कि जितनी चीज़ें मैंने हासिल कीं, उतना नाखुश होता गया। मैं जब ट्रैवल कर रहा था, तो मैंने देखा कि मेरे पास जो भी चीज़ें थीं, उनमें किसी की भी याद नहीं आई। और जब मैं लौटा, तो बता नहीं सकता था कि मेरे पास क्या-क्या था। तो बजाय उनको जमा करने के, मैंने उन्हें छोड़ने का फैसला किया। तो ये 'कल्ट ऑफ़ लेस' एक वेबसाइट है, जो मैंने
बनाई है। जो और मैंने उसमें वो सारी चीज़ें डाल दीं जो उस वक़्त मेरी थीं और मैंने साथमें उनका विवरण डाला और दाम भी डाले। और फिर लगभग एक साल के अंदर मैंने वो सब सामान बेच दिया। लक्ष्य था कि मेरा सारा सामान सिर्फ दो बॉक्स और दो सूटकेस में आ जाए। और मेरा नियम था कि अगर मुझे ये याद नहीं है कि किसी चीज़ को मैंने आखिरी बार इस्तेमाल कब किया, तो मैं उसे छोड़ दूंगा। अब मुझे ये चिंता नहीं होती है कि मैं अगली चीज़ क्या ख़रीदूंगा, बल्कि अब मैं सोचता हूं कि मैं अगला काम क्या करूंगा या अगली बार कौन सी जगह जाऊंग
ा। हमारे जीवन में कई बार सीमित तरीके से रहने का ख्याल स्पष्ट तौर पर सामने आता है, लेकिन हम यह सोचने लगते हैं कि हमारे प्रोडक्ट्स कैसे दिखते हैं। टिकाऊ विकास एक अच्छी प्रक्रिया है, क्योंकि इसका मतलब ये है कि आप ऐसी चीज़ को हटाकर नई चीज़ ला रहे हैं जिसका अब उपयोग नहीं हो सकता और यह बदलाव फ़ायदेमंद है। लेकिन गैरटिकाऊ विकास बाज़ार और जीवनशैली अक्सर दोनों के लिए हानिकारक होती है। मेरे लिए संपत्ति का मतलब सिर्फ़ वो नहीं जो आप कमाते हैं या अपने बैंक अकाउंट में रखते हैं। ज़िंदगी में आपने कितना अनुभव हास
िल किया, ये भी संपत्ति है, महत्वपूर्ण चीज़ है... या फिर लोगों के साथ आपकी दोस्ती कितनी मज़बूत है। मैं मानता हूं, एक शानदार दोस्ती से अच्छा कुछ नहीं है। और जीवन में इन चीज़ों में निवेश करना ज़्यादा अच्छा है, बजाए कमरे के लिए एक नया सोफा ख़रीदने से। यह समझाना मुश्कि़ल है कि क्यों कोई बात आपको सही लगती है, लेकिन मुझे तो ये बात अपने लिए सही लगी। मैं समझता हूं कि अगर हर देश में एक ऐसे समझदार नौजवान का चुनाव करें, जिसके पास दूरदृष्टि हो, जो ईमानदार हो। या कोई राष्ट्रपति या सरकार अपने देश के आम नागरिको
ं में से किसी एक को चुनकर एक दिन के लिए भी राष्ट्रपति बना दे, तो इससे बड़ा बदलाव आ सकता है। दुनियाभर के युवाओं का घोषणापत्र: धरती पर मौजूद 3 अरब युवाओें के लिए, जलवायु संकट अस्तित्व का मुद्दा है। आप, दुनियाभर के राजनेता, पिछले 25 सालों से इस जलवायु त्रासदी के बारे में जानते हैं। अब हम हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकते, हमें साथ मिलकर काम करना होगा, समय निकला जा रहा है। इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी समस्या मानसिकता की है। लोगों को पता है कि वो जो कर रहे हैं, उसके क्या परिणाम होंगे। लोगों को ये भी मालूम है कि
क्या सही है, क्या ग़लत है। लेकिन फिर भी वो, सही काम नहीं करते हैं। मैं पूछती हूं ऐसा क्यों? मुझे यह सोचकर ग़ुस्सा भी आता है और दुख भी होता है, कि आख़िर मैं भी इंसान हूं। और आप मेरे जीवन से जुड़े निर्णयों पर ध्यान क्यों नहीं दे रहे? आपको किसने चुना है या दुनिया में किसने आपको मेरा भविष्य छीनने का हक़ दिया है? हम यहां हैं क्योंकि हम अब तंग आ चुके हैं और हम चाहते हैं कि कि इस मुद्दे पर काम हो। मलावी की आबादी में 70 प्रतिशत से ज़्यादा युवा हैं। अगर अब युवा लोग आगे आकर कुछ नहीं करेंगे, तो फिर कब कर
ेंगे? हांगकांग में काफ़ी सारे युवा हैं, किशोर हैं, जो अपने बलबूते समाज में बदलाव लाने की सोच रहे हैं। मैक्सिको में तेल के बड़े भंडार हैं। लेकिन यहां राजनेताओं का ध्यान सिर्फ़ आमदनी पर है। वो धड़ल्ले से समुद्र का दोहन कर रहे हैं, और तेल प्रदूषण या समुद्री जीवों की मौत से उन्हें कोई मतलब नहीं है। उन्हें बस मुनाफा दिख रहा है। लेकिन मेक्सिको की जनता को इससे कोई फायदा नहीं मिलता है। बस उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा फायदा मिलता रहेगा और ऐसे ही लालच का जन्म होता है। लोग संशय में हैं और उन्हें कुछ समझ नहीं
आ रहा है। अगर उन्हें किसी और जगह ले जाएं और अलग चीज़ें सिखाएं, तो शायद वे ऐसी मानसिकता से बाहर आकर सोच पाएंगे कि वो कैसा जीवन जी रहे हैं। शायद तब उन्हें लगेगा कि भले ही मैंने काफी कुछ अर्जित किया, लेकिन मेरी ज़िंदगी असल में उतनी अच्छी नहीं है। हम सभी अपने जीवन में चीज़ें चुनते हैं। मैं साथ होकर बोलने वालों की ओर से बोलता हूं, “यह मेरा महाद्वीप है, और अभी देर नहीं हुई है, वक्त आ गया है, हम लड़ेंगे और बदलाव लाएंगे।” यदि मानव जाति वास्तव में सृष्टि की सिरमौर है और अपनी क्षणभंगुरता को समझती है, तो फ
िर उसके भीतर ये अंतहीन लालसा कहां से आती है? फिर उस कहावत का क्या कि मृत्यु के बाद कुछ साथ नहीं जाता। मेरे जीवन में सब कुछ अच्छा चल रहा था, जैसे कि न्यूरो सर्जन के रूप में मेरा काम और बाक़ी चीज़ें। फिर एक दिन अचानक सुबह लगभग साढ़े 4.30 बजे मेरी पीठ में बहुत तेज़ दर्द उठा और फिर मुझे ग्रैंड माल एपिलेप्टिक अटैक हुआ और उसके बाद मैं कोमा में चला गया। फिर मुझे अस्पताल ले जाया गया वहां मालूम चला कि मुझे काफ़ी गंभीर और बेहद असमान्य तरह की ग्राम निगेटिव बैक्टीरियल मेनिनजाइटिस बीमारी हुई है। यह बीमारी आप
के नियो कॉर्टेक्स को नुकसान पहुंचाती है, यानी दिमाग़ के उस हिस्से को जो हमारी संपूर्ण चेतना के लिए ज़िम्मेदार होता है। जब अस्पताल पहुंचा, मेरे जीवित रहने की उम्मीद केवल 10 फीसदी थी। फिर एक हफ्ता गुज़रा और वो संभावना महज़ 2 फीसदी रह गई, यानि ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं थी। एक मानवी मौत नजदीक थी। लेकिन यह एक चमत्कार जैसा साबित हुआ। तो जब मैं मौत के मुंह से निकलकर सातवें दिन वापस लौटा, तो ऐबेन एलेक्सांडर की जिंदगी की हर यादाश्त और जानकारी खो चुका था। भाषा का ज्ञान, मनुष्य जाति की समझ, पृथ्वी की, ब्
रह्मांड की, किसी भी चीज़ की जानकारी मुझे नहीं थी। मेरे आस पास मौजूद लोग, मेरी मां, मेरी बहनें, मेरे बेटे, मुझे कोई अंदाज़ा तक नहीं था कि ये लोग कौन हैं। मेरे कोमा में जाने से पहले मेरी शख़्सियत एक आधुनिक पारंपरिक वैज्ञानिक की थी, या यूं कहें कि एक छोटे-मोटे भौतिकवादी इंसान की। लेकिन जो इंसान अपने जीवन में मौत को छूकर लौटा हो, उसे फिर मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। बल्कि यह ख़ुद के अस्तित्व की, ख़ुद के होने की, भव्य अनुभूति होती है। और ये इंसान के अपने आप को देखने के नज़रिये को बदलता है और दूसरे मनु
ष्यों के प्रति उसके आचरण में भी बदलाव लाता है। मेरे हिसाब से इस भौतिकवादी दुनिया में ये लालच का भाव, या स्वार्थ या फिर भौतिक चीज़ें जमा करने का लोभ, ये सब डर के लक्षण हैं वो डर जो भीतर ही भीतर हमसे कहता है कि हम क़ाबिल नहीं। और इसीलिए, हम ज़्यादा से ज़्यादा भौतिक वस्तुएं जमा करने की होड़ में रहते हैं, जैसे कि इसी से हम लोगों के करीब जा सकेंगे या उस स्नेह को हासिल कर सकेंगे जो हम चाहते हैं। लेकिन ये तो बस एक अनंत कुआं है। हमने ख़ुद को मृत्यु की अवधारणा से अलग कर लिया है। जब भी मौत का ख़्याल हमारे
ज़हन में आता है, तो हमारा दिमाग़ उससे किसी तरह से छुटकारा पाना चाहता है। मेरी पत्नी एक लोकल हेल्थ केयर सर्विस में बतौर थैरेपिस्ट काम करती हैं, उनका कहना है " देखो,आपको मानना होगा कि मृत्यु जीवन का हिस्सा है।" यह कहने और स्वीकार करने के लिए काफी हिम्मत चाहिए, "यह जो मेरा अस्तित्व आज है और जो पहले भी था, वो शायद कल ना हो और हो सकता है आने वाले समय में ख़त्म हो जाए।" हम अब समझने की कोशिश में हैं कि, जैसे जैसे लोग मौत के करीब पहुंचते हैं, वो कैसा महसूस करते हैं। कुछ लोग समझदार हो जाते हैं, दयालु हो
जाते हैं। लेकिन असल में सोचने वाली बात ये है कि कैसे नौजवानों को इस सच्चाई का घूंट पिलाया जाए। मैं ख़ुद अपनी मृत्यु को लेकर काफी भयभीत हूं। लेकिन इसी के साथ मैं इस सच्चाई को भी धीरे-धीरे क़ुबूल कर रहा हूं कि एक दिन मेरी मृत्यु निश्चित है। इस समय कहूं तो, मैं मौत के आगोश में जाना नहीं चाहता। मैं थोड़ा और जीना चाहता हूं, और पैसे कमाना चाहता हूं। जब मेरे चचेरे भाई-बहन, पोते-पोती होश संभाल लें, तब मैं मरूं। यानी मरने से पहले, मुझे थोड़ा टाइम चाहिए। यह कभी भी हो सकता है। अभी आप हैं और अगले ही पल आप
दुनिया से विदा हो सकते हैं! हमें एक परिपक्व मनुष्य बनने के लिए, फिक्र से रूबरू होना ही होगा। हमें पूरी शिष्टता और विनम्रता के साथ इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हमारी सीमाएं है। हमें यह स्वीकार करना ही होगा। हमें इसे जाने देना चाहिए। मनुष्य धरती पर इकलौते ऐसे जीव मालूम होते हैं जिनकी नज़र में बिना मकसद के जीवन जीना अर्थहीन है। मेरे हिसाब से हर जीवन में दो सबसे ख़ास दिन होते हैं एक हमारे जन्म का दिन, और दूसरा वो दिन जब हम हमारा मकसद जान लेते हैं। क्या आवश्यक है? क्या अनिवार्य है? हम किस चीज़
के लिए जीते हैं? मुझे लगता है ख़ुशी को, ज़रूरत से ज़्यादा आंका गया है। ऐसा नहीं हैं कि ख़ुश रहना ज़रूरी नहीं है, लेकिन सिर्फ ख़ुश रहने से हम जीवन का मकसद पूरा नहीं कर सकते और ना ही इससे हम छोटी-छोटी चीज़ें अर्जित करने से ख़ुद को रोक सकते हैं। अगर आप सिर्फ ख़ुश रहना चाहते हैं, तो ऐसा करने के कई सारे तरीक़े हैं, लेकिन इससे आप और परिपक्व इंसान नहीं कहलाएंगे। और ज़ाहिर है, ना ही आप उस सच का सामना करने लायक हो पाएंगे, कि आपका अस्तित्व क्षणिक है, जिसकी मृत्यु निश्चित है। जिसकी मृत्यु निश्चित है। जीवन
जीने के लिए सिर्फ सुख प्राप्ति की खोज से आगे जाएं, मेरा तर्क यही है। आपको कोई न कोई वस्तु चाहिए। जैसे मुझे जूते, साइकिल और मेरा घर पसंद है। लेकिन मैं... मैरी पोपिंस की बात को मानता हूँ कि जरूरत से ज्यादा होना अधिक अच्छा नहीं है। मेरा मानना है कि अक्सर आपको ऐसी चीज़ों में ख़ुशी मिलती है जिनकी आप उम्मीद भी नहीं करते हैं। मैं आपको एक उदाहरण देती हूं हाल ही में एक रोज़, शाम के व़क्त मैं अपने बच्चों के साथ पार्क में घूम रही थी। और जब हम घर लौटने लगे तब हमने देखा वहां चारों तरफ़ ढेर सारे, चमकदार जुगनू
उड़ रहे हैं। तो हमने उन जुगनुओं को पकड़ते हुए 45 मिनट तक शानदार वक़्त बिताया। कुछ देर खेलने के बाद हमने उन जुगनुओं को छोड़ दिया। ऐसे लम्हे, वो शान्त पल होते हैं, जब आपके साथ सब कुछ अच्छा हो रहा हो। आप लोगों के साथ का मज़ा लेते हैं, जो काम कर रहे हैं उसका मज़ा लेते हैं। और अक्सर इस तरह के लम्हों को आप ख़रीद नहीं सकते। बौद्ध धर्म वहां सबसे ज़्यादा फलता-फूलता है, जहां ऐसे लोग रहते हैं, जो भौतिकवाद और उपभोक्तावाद से ऊपर उठ चुके हैं और ये समझ चुके है कि ये ख़ुशी और शान्ति का कोई विकल्प नहीं और एक तर
ह से यह वो रास्ता खोलता है, जहां एक इंसान बाहरी दुनिया की बजाए अपने भीतर ही सवालों के जवाब ढूंढने में लग जाता है। एक तरह से आप अपनी गाड़ी के ख़ुद चालक होते हैं। और इसीलिए ये आप तय कर सकते हैं कि आपको सीधे रास्ते जाना है या उल्टे रास्ते। और इसी तरह से सचेत रहने की आपकी चेतना, आपकी क्षमता, ज़्यादा शक्तिशाली होती है। मेरे ख़्याल से ख़ुशी वहीं मिलती है, जहां भीतरी संतुष्टि होती है। सादगी और संतुष्टि। आपकी दौलत किसी को प्रभावित नहीं करेगी। आप शॉपिंग मॉल से कितने कैरी बैग लेकर निकल रहे हैं, आप किस कार
में घूम रहे हैं, इनसे कोई प्रभावित नहीं होगा। जिस बात से वाक़ई असर होगा वो है, अपने दिल से आप जो दुनिया के लिए करेंगे। मैं आपको एक ऐसा अनुभव करवाना चाहता हूं, जो जीवन की असली ख़ुशी का एहसास कराएगा। मैं नहीं जानता कि आप ये ऊर्जा महसूस कर पा रहे हैं या नहीं। यह डूबता सूरज है और इस तरफ़ है पूरा चांद दोनों एकदम विपरीत। जीवन अपने आप में एक समारोह है। यानि आपको अपनी ज़िंदगी के जश्न मनाने के लिए दोबारा समारोह का आयोजन करना होगा। बदलाव की यही एकमात्र कुंजी है। कोई दूसरी नहीं। क्या हमारे पास समाधान हैं?
मुझे तो उम्मीद है। लालच, कुछ प्रेरणादायक शक्तियों का एक जटिल मिश्रण है, इसने रचनात्मकता, नवीनता और आविष्कार को प्रेरित किया है। वहीं दूसरी ओर देखें, तो मनुष्य की हर विचित्र नवीनता के साथ उसका एक नकारात्मक पहलू जुड़ा है। यह एक वरदान भी है और अभिशाप भी। हम पृथ्वी पर शायद पहले ऐसे जीव हैं जो ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं। और विकासवाद के पास ऐसी समस्याओं का हल नहीं है जिनका अस्तित्व ही ना हो। विकासवाद एक तरह से अंधा है, विकासवाद भविष्य की रूपरेखा तैयार नहीं करता, विकासवाद का नैतिक परिणामों से कोई संबंध
नहीं है। हमारे कुछ नैतिक आदर्श हैं। और हम सब को वो मालूम हैं। लेकिन हम उनका अब प्रयोग नहीं करते। यही हमारी समस्या है। हमें उन आदर्शों के साथ जीना होगा। और यह करना बिल्कुल आसान नहीं है। यह समझने के लिए कि हमारे शरीर की हर गतिविधि, हमारी बातें, और हमारे विचार, सब एक-दूसरे से जुड़ते हैं और दूसरों की ज़िंदगी पर भी प्रभाव डालते हैं अगर यह व्यापक समझ हर इंसान में आ जाए, तो मानव जीवन हर किसी के लिए, क़ुदरत का सबसे शक्तिशाली और सबसे ख़ूबसूरत तोहफा बन जाएगा। अल्बर्ट कामू की लिखी एक बात मुझे अच्छी लगती ह
ै, “तुम बस मृत्यु से सुलह कर लो, फिर कुछ भी मुमकिन है।” मेरी मां कुछ ऐसा किया करती थीं। वो कहती थीं “केवल अपने दिल में जमी बर्फ पिघलाकर ही, इंसान को खुद को बदलने और अपने ज्ञान का सदुपयोग करने का मौका मिलेगा।”

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