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इस्राएल: एक देश के जन्म की कहानी [Israel: Birth of a State] | DW Documentary हिन्दी

14 मई, 1948 को इस्राएल राष्ट्र ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की. कई लोगों के लिए, यह लंबे समय से देखे गए एक सपने के सच होने जैसा था: "इस्राएल की पवित्र भूमि," सभी यहूदियों और होलोकॉस्ट से बचे लोगों का अपना घर. फलस्तीनी इस दौर को "तबाही" कहते हैं. इस्राएल की स्थापना 75 साल पहले हुई थी. इसका असर आज भी मध्य पूर्व में चल रहे संघर्ष में देखा जा सकता है. इस्राएल-फलस्तीनी संघर्ष की ऐतिहासिक जड़ें क्या हैं? यह डॉक्यूमेंट्री 1897 से 1948 तक के महत्वपूर्ण वर्षों पर रोशनी डालती है. इस्राएली और फलस्तीनी इतिहासकार और विशेषज्ञ अपने विचार साझा करते हैं और उन वर्षों की वैश्विक राजनीतिक घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं. नवंबर 1947 में ब्रिटिश मैन्डेट्री फलस्तीन के बंटवारे पर संयुक्त राष्ट्र की योजना से इसमें निर्णायक मोड़ आया. यहूदियों को सुरक्षा, शरण और मातृभूमि देने वाले एक स्वतंत्र राष्ट्र का बनना कुछ लोगों के लिए किसी सपने के सच होने जैसा था. वहीं कुछ के लिए यह एक "तबाही" की शुरुआत थी, जिसे फलिस्तीनी "नकबा" कहते हैं. इसे मातृभूमि का छूट जाना, विस्थापन और अनिश्चितता के तौर पर देखा जाता है. संयुक्त राष्ट्र के ऐतिहासिक मतदान के 75 से अधिक वर्षों के बाद भी इस्राएल और अब कब्जे वाले फलस्तीनी क्षेत्रों के बीच संघर्ष जारी है. यह मध्य पूर्व में और उसके परे भी अनसुलझे तनाव का एक स्रोत है. #DWDocumentaryहिन्दी #DWहिन्दी #israel #palestine #hamas ---------------------------------------------- अगर आपको वीडियो पसंद आया और आगे भी ऐसी दिलचस्प वीडियो देखना चाहते हैं तो हमें सब्सक्राइब करना मत भूलिए. विज्ञान, तकनीक, सेहत और पर्यावरण से जुड़े वीडियो देखने के लिए हमारे चैनल DW हिन्दी को फॉलो करे: @dwhindi और डॉयचे वेले की सोशल मीडिया नेटिकेट नीतियों को यहां पढ़ें: https://p.dw.com/p/MF1G

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8 months ago

29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने न्यूयॉर्क में अपनी 128वीं पूर्ण बैठक बुलाई। एजेंडे में था एक मतदान, जिसके तहत ब्रिटिश फिलिस्तीन को दो आज़ाद देशों में बांटने का प्रस्ताव था, एक अरब देश और एक यहूदी देश। प्रस्ताव पारित करने के लिए दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत थी। यहूदी एजेंसी के अधिकांश प्रतिनिधि फिलिस्तीन लौट गए थे क्योंकि कम लोगों का ही मानना था कि इस प्रस्ताव को पर्याप्त मत हासिल हो सकेंगे। एक अपवाद थे यहूदी एजेंसी के प्रतिनिधि आबा एवीन वे फिलिस्तीन मामलों के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेष
समिति के संपर्क अधिकारी थे। उन्होंने सोचा कि स्थिति बदल सकती है। एवीन ने बाद में बताया कि उन लोगों ने दुनिया का एक नक्शा लिया, उसे बांटा और प्रतिनिधियों को मनाने में लग गए। कोशिशों के बावजूद उन्हें अभी भी तीन या चार और मतों की ज़रूरत थी। समय बीतता जा रहा था। एवीन ने बताया कि दुनियाभर में टेलिग्राम भेजे गए और एक नामुमकिन से लगने वाले मिशन के लिए ताकतवर लोगों को आधी रात में जगाया गया। उन्होंने बताया कि स्थितियों को पक्ष में लाने के लिए सबने अपने-अपने स्तर पर प्रभाव डाला। फ्रांस ने इसमें भाग न लेन
े की योजना बनाई थी। लेकिन एवीन ने बताया कि उन्होंने यहूदी एजेंसी के एक प्रतिनिधि और ज़ायनिस्ट नेता खाइम वाइत्समन को राज़ी किया कि वो पूर्व फ्रेंच प्रधानमंत्री और अपने पुराने दोस्त लियों ब्लूम से संपर्क करें। वाइत्समन ने ब्लूम से पूछा, क्या वाकई फ्रांस एक ऐसे मौके से ग़ैरहाज़िर रहना चाहता है जो मानव इतिहास की याददाश्त में हमेशा दर्ज रहेगा। 1896 में एक युवा ऑस्ट्रो-हंगेरियन पत्रकार थियोडोर हैर्त्सल ने "द ज्यूइश स्टेट" नाम की किताब प्रकाशित की। उन्होंने इसे द्रायफूस मामले के मद्देनजर लिखा था, जो फ्
रांस में हुआ एक यहूदी-विरोधी राजनीतिक स्कैंडल था। हैर्त्सल पूरे यूरोप में बढ़ते यहूदी-विरोध से चिंतित थे। उन्होंने लिखा, अगर आप चाह लें, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। हमें पर्याप्त ज़मीन की संप्रभुता दे दीजिए, ताकि हमारे लोगों की जरूरतें पूरी हो सकें और बाकी चीज़ें हम ख़ुद संभाल लेंगे। हैर्त्सल को उम्मीद थी कि अगर यहूदी लोगों को अपना देश मिलता है, तो वो भी दूसरों की तरह हो सकेंगे और उनके साथ भी ठीक व्यवहार किया जाएगा। फिर धीरे-धीरे यहूदी-विरोध कम होता जाएगा। लेकिन उन्होंने अपनी किताब में यह भी स्वी
कारा कि यहूदी-विरोध इतनी गहराई तक पैठ गया था और इतनी सदियों से इतना मज़बूत हो गया था कि मुमकिन था ये सपना कभी सच नहीं हो पाता। इसीलिए यहूदी-विरोध और दुनियाभर में फैले हुए यहूदियों की समस्या के समाधान के लिए उन्हें नया देश बनाने और वहां रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं दिखा। एक साल बाद उन्होंने स्विट्जरलैंड के बाज़ेल में एक कॉन्सर्ट हॉल में पहली ज़ायनिस्ट सभा की अध्यक्षता की। इसका लक्ष्य यहूदी लोगों के लिए मातृभूमि स्थापित करना था। वहां मौजूद प्रतिभागियों में से एक ने थियोडोर हैर्त्सल को "सेकुलर ब्लै
क बीयर्डेड मसीहा" तक कहा, जो उन्हें “प्रॉमिस्ड लैंड” ज़रूर दिलाएगा। भीड़ उत्साहित थी और हॉल में एक आवाज़ गूंजी, अगले साल फिलिस्तीन में! अगले साल हैर्त्सल ने पहली और एकमात्र बार मिस्र और फिर फिलिस्तीन की यात्रा की। उन्होंने अपनी पत्रिका में लिखा, येरुशलम शानदार है। चांदनी रात में 'द सिटी ऑफ डेविड' कमाल लगता है। उन्होंने जैसा बताया वो यक़ीनन एक अद्भुत देश है। हैर्त्सल की नज़र में, यह बहुत ही उदार देश है, बहुत यूरोपीय, बहुत सुसंस्कृत और बहुत साफ। साथ ही, विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों और समाज के अलग-अल
ग स्तर के लोगों के बीच बहुत अच्छे संबंध हैं। जब हैर्त्सल ने अपनी ज़ायनिस्ट योजना के बारे में बात की, तो सभी रूढ़िवादी, कट्टरपंथी और यहूदी सुधारवादियों ने ज़ायनिज़्म के ख़िलाफ़ बोला। 19वीं सदी के अंत में, सबने यही किया था। वो इसे पाप समझते थे। उन्होंने तर्क दिया कि निर्वासन एक दैवीय सज़ा है और मसीहा भेजने का ईश्वर का अपना फ़ैसला है। हैर्त्सल ने कहा कि धर्म और देश के बीच विभाजन की ज़रूरत है। रब्बी अपने उपासनागृह में रहें, वो ना बताएं कि हमें क्या करना है। ज़ायनिज़्म धर्म के बंधनों से मुक्त होने और
“एरेत्स इस्राएल,” यानी इस्राएल की ज़मीन पर नए लोगों के साथ नए समाज के निर्माण की इच्छा है। 1905 में युगांडा और अर्जेंटीना के नामों पर विचार करने के बाद 7वीं ज़ायनिस्ट सभा ने फिलिस्तीन को यहूदियों का वतन बनाने के लिए चुना। इत्साक एप्सटाइन ने एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि वे लोग भूल गए कि वहां हमारे प्यारे वतन में बहुत सारे लोग रहते हैं, जो सैकड़ों साल से उससे जुड़े हैं और उन्होंने उस ज़मीन को छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचा। उन्होंने कहा कि वो एक गंभीर मनोवैज्ञानिक गलती कर रहे थे। इस सभा
से एक साल पहले हैर्त्सल की मृत्यु हो गई थी। ब्रिटिश सेनेगॉग्स संघ के अध्यक्ष ने हैर्त्सल को लिखा था कि यहूदी राज्य की स्थापना के विचार ने उनके रौंगटे खड़े कर दिए क्यूंकि वो एक घेटो बन जाएगा। सदी की शुरुआत में वहां कई हज़ार यहूदी और लगभग पांच लाख अरबी रहते थे। यहूदी वहां खेती नहीं करते थे। कई यहूदी बहुत रूढ़िवादी थे। उन्हें या तो विदेशों से दान मिलता था या वो व्यापार करते थे। हालात ऐसे ही थे। येरुशलम या हेब्रॉन और साफ़ेद जैसी जगहों पर एक छोटा समुदाय रहता था, जो बेहद धार्मिक और बहुत रूढ़िवादी था।
अरबों और यहूदियों के बीच यक़ीनन अच्छे संबंध थे। जैसे ज़मीन और घर खरीदने में कोई समस्या नहीं होती थी। ऐसा ही था और ये काफी आम था। मेरे माता-पिता जाफा में रहते थे, मैन्डेट फिलिस्तीन में रह रहे यहूदियों में उनके कई दोस्त थे। ये चीजें उस वक़्त आम थीं, इसमें कुछ भी असामान्य नहीं था। मेरे ख़याल से इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यहूदी वहां रहते थे। उनकी अपनी संस्कृति थी, अपना समाज था। रूस में यहूदी-विरोधी सामूहिक हत्याओं के कारण यहूदी लोग दूसरे देशों, खासकर अमेरिका चले गए। यूक्रेन के युवा ज़ायनिस्
ट छात्रों के एक छोटे समूह ने फिलिस्तीन में बसने का फ़ैसला किया। एक समूह आया, रीशॉन लेत्सियॉन में ज़मीन खरीदी और वहीं रहने लगा। यह एक अजीब बात थी कि यहूदी शुरू से ही कहते थे, यह हमारी ज़मीन है। और अरबों ने यह सुना। इसलिए आप्रवासन की शुरुआती लहर में जैसे ही पहले यहूदी पहुंचे, यहूदी-अरब संघर्ष शुरू हो गया। इस तरह शुरू से ही दुश्मनी और संघर्ष के बीज पनप गए। आदर्शवादी युवक ज़मीन पर खेती करने आए। वे इस्राएल में एक मॉडल बस्ती बसाना चाहते थे। 1907-1908 के दस्तावेज़ कहते हैं, यह हमें अपने ही देश से बाहर
निकालने की एक बहुत बड़ी साजिश है। इस अविकसित देश में काम करने की स्थितियों ने सभ्यता से कटे हुए इलाकों में लोगों को जीवन की समान स्थितियां कायम करने के लिए उकसाया। यहीं से "किबुत्स" की अवधारणा पनपी। फिलिस्तीन में पहला "किबुत्स," यानी एक ग्रामीण सामुदायिक बस्ती, 1909 में स्थापित किया गया। यूरोप से आए युवा आदर्शवादी संस्थापकों ने एक नए देश और जीवनशैली की कल्पना की। मेरे दादा ने इतनी ज़्यादा कीचड़ में मेहनत की, सफ़ेदा के पेड़ लगाकर दलदली भूमि को सुखाने की कोशिश की। मेरी दादी ने हथौड़े से कंकड़-पत्थर
तोड़े। वो पांच साल तक एक तंबू में रहे। पश्चिमी दुनिया फिलिस्तीन को निर्जन मानती थी और उसके निवासियों की अवहेलना करती थी। पश्चिमी दुनिया के लिए फिलिस्तीन एक बंजर, उजाड़ भूमि थी जो रेगिस्तान और दलदल से भरी हुई थी। एक प्रसिद्ध कहावत है। दुल्हन सुंदर है, लेकिन शादीशुदा है। वो इसे ख़ुद स्वीकारने को तैयार नहीं थे। तो वो बाहर से आने वाले लोगों के ऐसे देश में, जहां लोग पहले से ही रह रहे थे, बसने को कैसे जायज़ ठहरा सकते थे? उस समय दुनिया भर में एक नारा फैलाया गया था, बिना ज़मीन वाले लोगों के लिए बिना लोग
ों वाली ज़मीन। यह बहुत बड़ा झूठ था। उन्होंने दावा किया कि उन्होंने इस ज़मीन को स्वर्ग बना दिया है। माना जाता था कि यह पहले सिर्फ रेगिस्तान था और अच्छी बात है कि हम आए। या इसी तरह की और बातें। एक उजाड़ बंजर ज़मीन की यह कहानी 19वीं सदी से शुरू हुई। उसी वक़्त यूरोप के ताकतवर देशों ने इस पवित्र ज़मीन को एक बंजर रेगिस्तान बताना शुरू किया, जिसे किसी भी कीमत पर लोगों के रहने लायक बनाना था। ज़ायनिस्ट आंदोलन की शुरुआत तक मुसलमानों में अविश्वास नहीं था। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन यहूदियों के साथ
उनका रिश्ता इस तरह बदल जाएगा और फिलिस्तीनी लोगों को नुकसान उठाना पड़ेगा। यहूदी बस्ती ने अरबों और यहूदियों के बीच बिगड़ते संबंधों को और हवा दे दी। और ऐसा इसलिए कि यहूदियों ने अरब कर्मचारियों को काम पर ना रखने का फ़ैसला किया। जैसे-जैसे ज़ायनिस्ट आंदोलन ने रफ़्तार पकड़ी, अधिक-से-अधिक यहूदी लोगों ने फिलिस्तीन में ज़मीन खरीदी। 1908 से 1913 के बीच, 11 नई यहूदी बस्तियां बनाई गईं। इस दौरान अरबों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। कई लोगों ने यहूदियों को ज़मीन बेचने का विरोध किया। सभी फिलिस्तीनी अरब नेताओं ने ज
़ायनिस्टों को ज़मीन बेची। इसके दस्तावेज़ मौजूद हैं। उन्होंने ज़मीन हासिल करना शुरू कर दिया और लोगों को एहसास हुआ कि कुछ तो समस्या है। आप किसी ऐसे इंसान के साथ शांति से कैसे पेश आ सकते हैं जो आकर एक अलग यहूदी देश बनाना चाहता है? वह ज़मीन खरीदे या न खरीदे, वह यहूदियों और अरबों का संयुक्त देश नहीं चाहता, वह अलग यहूदी देश चाहता है। इससे जल्द ही तनाव का माहौल बन गया। आप्रवासन की हर लहर के साथ तनाव बढ़ता गया और अरबों का एहसास गहराता गया कि अब ज़मीन उनके हाथ से निकलती जा रही है। पहले विश्व युद्ध ने मध्य
पूर्व का भूगोल बदल दिया। ऑटोमन साम्राज्य की हार हुई। तुर्की को छोड़कर बाकी मध्य पूर्व को पश्चिमी शक्तियों ने बांट दिया और उनका प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। फ्रांस और ब्रिटेन के बीच हुई ये गुप्त संधि, साइक्स-पीको समझौते से फिलिस्तीन ब्रिटेन का हो गया और इसे मैन्डेट्री फिलिस्तीन कहा गया। फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक देश बनाना अंग्रेजों के कारण मुमकिन हुआ। बैलफोर घोषणापत्र तो जगजाहिर है, जिसने यहूदियों को ज़मीन देने का भी वादा किया था। अंग्रेज इस इलाके में पश्चिमी देशों की मौजूदगी सुनिश्चि
त करना चाहते थे। नवंबर 1917 में ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बैलफोर ने ज़ायनिस्ट आंदोलन के नेताओं में से एक लॉर्ड लायोनेल वॉल्टर रोथशिल्ड को एक पत्र लिखा। बैलफोर ने लिखा, ब्रिटेन की शाही सरकार फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक देश बनाने के पक्ष में है और इस उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करेगी। उसे यह भी साफ समझ आ गया है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूद ग़ैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकार के प्रति पक्षपातपूर्ण हो। बैलफोर घोषणा एक उपनिवेशवा
दी द्वारा किसी को ऐसा उपहार देने की घोषणा थी, जिसे देने का उसे कोई अधिकार नहीं था। 1917 में जब ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग देश बनाने की ज़ायनिस्ट योजना को अपनाया, उस वक़्त फिलिस्तीनियों की आबादी 98 प्रतिशत थी। सबसे उल्लेखनीय आंकड़ा 1919 का है, जब ब्रिटेन ने यहां का शासन अपने हाथों में लिया था। उन्होंने पहली बार गंभीरता से जनगणना कराई। 1919 में यहां सात लाख अरबी भाषी थे, मतलब अरबी लोग और 70,000 यहूदी थे। शुरू से ही अंग्रेज इस बात को जानते थे कि लंबे समय तक वहां रहने के ल
िए उन्हें देश को बांटना होगा। विभाजन की पहली कार्रवाई में ही खोट थी। अपनी पहली जनगणना में उन्होंने ऐसी श्रेणियां बनाईं, जो पहले मौजूद नहीं थीं। उन्होंने एक "यहूदी" श्रेणी और एक "अरब" श्रेणी बनाई। और यह इस तरह से चलता रहा। वो इस सिद्धांत पर काम करते रहे, अगर हम उनको एक-दूसरे से लड़ाने में कामयाब रहे, तो हम हमेशा इसमें रेफरी बने रह सकते हैं। यहूदी-विरोधी झड़प की पहली लहर 1920 के मार्च और अप्रैल में येरुशलम में बढ़ी। मई 1921 में जाफ़ा और तेल अवीव में और विरोध प्रदर्शन जारी रहे। 50 से ज़्यादा लोग मारे
गए थे। उपनिवेश मामलों के तत्कालीन ब्रिटिश मंत्री विंस्टन चर्चिल ने घटनाओं की जांच की। 1922 में उन्होंने फिलिस्तीन पर ब्रिटिश रुख को स्पष्ट करते हुए एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया। जुलाई 1922 में राष्ट्र संघ ने ब्रिटेन को यहूदियों के लिए एक राष्ट्र का निर्माण शुरू करने का निर्देश दिया। 1924 से 1928 के बीच 60,000 से अधिक यहूदी फिलिस्तीन पहुंच गए। 20 अगस्त, 1929 को येरुशलम में पश्चिमी दीवार तक पहुंच के अधिकार पर हुए विवाद को लेकर मुसलमानों और यहूदियों के बीच झड़प शुरू हो गई। दो दिन बाद अफवाहें फैलने ल
गीं कि अल-अक्सा मस्जिद पर यहूदी हमला करने वाले हैं। तब येरुशलम के पुराने शहर में यहूदियों को निशाना बनाकर दंगे हुए, जो पूरे फिलिस्तीन में फैल गए। हेब्रॉन में 67 यहूदी मारे गए, जिनमें महिलाएं और बच्चे शामिल थे। साफ़ेद में हुई सामूहिक हत्याओं के कारण 18 यहूदियों की मृत्यु हो गई। उन दिनों दंगों के दौरान 133 यहूदियों को अरबों ने मार दिया। एक ब्रिटिश रिपोर्ट ने हिंसा का कारण बताते हुए लिखा, यहूदियों के प्रति अरबों की शत्रुता और द्वेष की भावना के परिणामस्वरूप उनकी राजनीतिक और राष्ट्रीय आकांक्षाओं से ज
ुड़ी निराशा और इसके कारण अपने आर्थिक भविष्य के लिए पनपा उनका भय। 1933 में नाज़ी सत्ता में आए और पहले जर्मनी और फिर ऑस्ट्रिया में यहूदियों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। 1933 से नाज़ी नेतृत्व वाली जर्मन सरकार ने यहूदियों के सभी कारोबारों के बहिष्कार का आयोजन किया। यहूदी एजेंसी ने हिटलर के वित्त मंत्री के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत जर्मन यहूदियों को फिलिस्तीन जाकर बसने की अनुमति मिली, लेकिन इस शर्त पर कि वो अपनी अधिकांश संपत्ति छोड़कर जाएं। 1933 से 1939 के बीच हजारों लोग फिलिस्तीन चल
े गए, जिससे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला। नए लोगों में ज़्यादातर बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक वास्तुकार और कलाकार थे। कई व्यवसाय शुरू किए गए। 1909 में स्थापित तेल अवीव की जनसंख्या तिगुनी हो गई और वहां 1,50,000 लोग रहने लगे। लोग समुद्र तटों और स्थानीय व्यवसायों के लिए आते रहे। हारेत्स अख़बार ने एलेनबी और बियालिक स्ट्रीट के किनारे एक नया कैफे खुलने की ख़बर छापी और लिखा कि यह बड़ी यूरोपीय राजधानियों के कैफे जैसा है। 1935 में डेविड बेन-गुरियोन को यहूदी एजेंसी का अध्यक्ष चुना गया। लगभग दो दशक पहले, 20 साल की
उम्र में, वह वॉरसा के पास एक छोटे से शहर से फिलिस्तीन आए थे। वह तत्काल एक यहूदी देश चाहते थे। उनके दोस्त समझ गए थे कि इसमें समय लगने वाला है। उसी साल डेविड बेन-गुरियोन को हगनाह का कमांडर-इन-चीफ बनाया गया, जो कि फिलिस्तीन में यहूदी अर्धसैनिक समूह था जिस पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा रखा था। अप्रैल 1936 में पूरे मैन्डेट्री फिलिस्तीन में अरबों ने एक आम हड़ताल की अपील की। उन्होंने यहूदी आप्रवासन को ख़त्म करने और यहूदियों को ज़मीन बेचने पर रोक लगाने की मांग की। फिलिस्तीनी अरब विरोध 1936 के अरब विद्रो
ह में बदल गया। विद्रोह का उद्देश्य फिलिस्तीन में यहूदीवाद और ब्रिटिश उपस्थिति दोनों के ख़िलाफ़ था। उन दंगों में बहुत से लोगों की जानें गईं। सैड़कों अरबी लोग और 300 से अधिक यहूदी मारे गए। उसी साल अरब उच्च समिति की स्थापना की गई। इसकी अध्यक्षता येरुशलम के प्रमुख मुफ़्ती अमीन अल-हुसैनी ने की थी। मुफ़्ती फिलिस्तीनी लोगों के नेता थे। वह एक क्रूर इंसान थे, जिनका राष्ट्रवाद नाज़ी समर्थक था। पहला कारण ये कि नाज़ी अंग्रेजों और यहूदियों के दुश्मन थे। दूसरी वजह ये कि वह नाज़ी विचारधारा से सहानुभूति रखते थे
। येरुशलम के मुफ़्ती का ख़ुद को बर्लिन और हिटलर के हाथों में सौंप देना पूरी तरह से एक भ्रमित सनक थी। मुफ़्ती बर्लिन गए और एसएस यूनिट्स बनाने की कोशिश की, एक मुस्लिम एसएस! वह जर्मन सेना से जुड़कर फिलिस्तीन पहुंचना चाहते थे और वहां बसे यहूदियों को मारना चाहते थे। मुफ़्ती का जर्मनी में कोई आधार नहीं था। हिटलर को मुफ़्ती की परवाह नहीं थी, उसने उन्हें नज़र अंदाज़ किया। लेकिन मुफ़्ती ने आइषमन से दोस्ती कर ली। 1936 की शुरुआत में आइषमन, गेस्टापो के यहूदी विभाग का प्रमुख बना, जो कि एसएस की खुफिया पुलिस थी
। दुश्मन के बारे में पता लगाने के लिए उन्हें मैन्डेट्री फिलिस्तीन भेजा गया। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें हिब्रू सीखने, रीति-रिवाज और वहां की छुट्टियों के बारे में सीखकर फिर जर्मनी लौटना था। इस तरह ये पता लगता कि उन्हें किन लोगों का सामना करना है और इसे कैसे "हैंडल" किया जाए। उनका मानना था कि उन्हें यहूदियों के बारे में सबकुछ पता होना चाहिए। तो मुफ़्ती आइषमन के दोस्त बन गए। आइषमन ने भी इसकी पुष्टि कर दी। मुफ़्ती ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि वे इस मायने में दोस्त बने कि दोनों को यहूदियों से
छुटकारा पाने में दिलचस्पी थी। बाद में हमें येरुशलम के मुफ़्ती के इस सनक की कीमत चुकानी पड़ी। इतिहासकार खगाई होरोवित्स ने बाद में हिटलर के साथ येरुशलम के ग्रैंड मुफ़्ती की बैठक की अहमियत के बारे में लिखा। उन्होंने लिखा, यह एक संकेत था कि राष्ट्रीय अरब आंदोलन के उद्देश्य बदल गए थे। पहली बार हर कोई उस खतरे को समझ रहा था, जिसने हमारे अस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। यह अब काल्पनिक नहीं था। यह वह चोट थी, जिसने संघर्ष की प्रकृति और हमारी युद्ध रणनीति को बदल दिया। नाज़ियों द्वारा यहूदी विरोधी, नस्लवाद
ी न्यूरेमबर्ग कानूनों के अधिनियमन ने यूरोप में लाखों यहूदियों के जीवन को खतरे में डाल दिया। उसी समय अंग्रेजों ने फिलिस्तीन की ओर जाने वाले आप्रवासन मार्ग पर रोक लगा दी। दूसरे देशों ने भी यहूदियों के लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा निर्धारित सख्त आप्रवासन कोटे के कारण जर्मनी और ऑस्ट्रिया से शरणार्थियों की संख्या में भारी कमी आई। जुलाई 1938 में 32 देशों के प्रतिनिधियों ने जर्मनी के यहूदी शरणार्थियों की सहायता करने के उद्देश्य से फ़्रांस के एवियां में एक बैठक बुलाई। लेकिन इससे क
ोई हल नहीं निकला। उपस्थित 32 देशों में से कोई भी सताए गए यहूदियों को अपने देश में आने देने पर सहमत नहीं हुआ। जैसे ही जर्मनी के साथ युद्ध का खतरा बढ़ा, अंग्रेजों ने फरवरी 1939 में सेंट जेम्स सम्मेलन बुलाया, इस उम्मीद के साथ कि धुरी शक्तियों के साथ अरब गठबंधन टूट जाए। बैठक में यहूदी और अरब पहली बार बातचीत के लिए आमने-सामने आए, लेकिन अरब प्रतिनिधियों ने यहूदी एजेंसी के प्रतिनिधियों से मिलने से साफ इनकार कर दिया। ब्रिटेन देख रहा था कि फिलिस्तीन में स्थितियां विस्फोटक और पहले से कहीं अधिक अनिश्चित हैं
। ब्रिटिश अधिकारियों ने एक और श्वेत पत्र प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने यहूदी आप्रवासन को बहुत कम कर देने की योजना का एलान किया। उन्होंने साफ तौर पर यह भी कहा कि उनका फिलिस्तीन को एक यहूदी देश बनाने का कोई इरादा नहीं था। सितंबर 1939 में जर्मन सैनिकों ने पोलैंड पर हमला कर दिया, जिसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। यूरोप और उत्तरी अफ्रीका जंग का मैदान बन गए। एरविन रॉमेल ने उत्तरी अफ्रीका में जर्मन सैनिकों की कमान संभाली और फिलिस्तीन पर हमले की योजना बनाई। डेविड बेन-गुरियोन ने लोगों को एकजुट
करते हुए कहा, अंग्रेजों का समर्थन ऐसे करें, जैसे श्वेत पत्र जैसी कोई चीज नहीं है और श्वेत पत्र का विरोध ऐसे करें जैसे जंग नहीं चल रही हो। हगनाह अर्धसैनिक, ब्रिटिश सेना के भीतर एक यहूदी ब्रिगेड बनाने पर सहमत हुए, जिसका मिशन जर्मन सैनिकों से लड़ना था। बचपन में मेरे पिता चार भाषाओं में अखबार पढ़ सकते थे। उनकी राजनीतिक जागरूकता बेहद गहरी थी। 1939 में नाज़ियों के आक्रमण के तुरंत बाद उनकी मां की मृत्यु हो गई। तब उन्होंने अपने पिता को, जो एक पारंपरिक यहूदी थे, यकीन दिलाया कि यहूदियों के लिए इस्राएल की
पवित्र ज़मीन के सिवा कोई दूसरी जगह नहीं हो सकती। चार महीनों तक उन्होंने डेन्यूब के दक्षिण में यात्रा की और फिर अवैध अप्रवासियों से भरी एक जहाज़ पर सवार हुए। दुनिया का कोई भी देश इस जहाज़ को अपने यहां रुकने की इजाज़त नहीं दे रहा था। न तो ब्रिटेन, चर्चिल और न ही रूज़वेल्ट के नेतृत्व वाला अमेरिका वह एक 12 साल के यहूदी लड़के थे, जिनके पैरों तले समुद्र के अलावा और कुछ नहीं था। अंत में वो यहां पहुंचे और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। और ज़्यादा लोग पहुंचे लाखों लोग। उस वक़्त जो कुछ भी घट रहा था,
उसके बारे में सभी के पास कहानियां थीं। सबसे पहले, हमने सोचा कि यहूदी बस्ती कल्पना करने लायक जगह भी नहीं है। लेकिन फिर हमें पोलैंड से परेशान करने वाली ख़बरें मिलने लगीं। कई जगहों से कई हत्याओं की भयानक ख़बरें। उन्हें यकीन नहीं हुआ। पहले लोग इसे समझ नहीं पाए। उन्हें लगा यह कोई जनसंहार या यहूदी विरोधी लहर है। यह सच बेहद भयानक था। एक-एक करके, साल के अंत तक, हम अत्याचारों की पूरी तस्वीर देखते रहे। जघन्य तरीकों से हत्याएं हुईं। लोगों को ज़िंदा दफ़ना दिया गया, माता-पिता को अपने बच्चों को दफ़नाने पर मज
बूर कर दिया गया, खाई के सामने गोली मार दी गई। अगस्त 1942 में एक टेलीग्राम यहां पहुंचा, जिसमें कहा गया था कि हिमलर ने साल के अंत तक 35 से 40 लाख लोगों को ख़ास जगहों पर प्रूसिक एसिड नाम की गैस या साइनाइड से मारने का फ़ैसला किया है। वह तार बिल्कुल यकीन लायक नहीं लग रहा था, लिहाज़ा उसे दराज़ में रख दिया गया। लेकिन फिर पहला समूह इस्राएल पहुंचा और उन्होंने लोगों से कहा, सच में यही हो रहा है, यह सब सच है, यह भयानक है, वे क्रमबद्ध तरीके से ऐसा कर रहे हैं। आप ऐसी चीजें कैसे सुन सकते हैं जब आपका पूरा परिवा
र यूरोप में हो? इसका मतलब था कि अब उनका कोई परिवार, कोई समाज नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, लेकिन नाज़ी जर्मनी पर मित्र देशों की जीत से ब्रिटिश नीति में बदलाव नहीं आया। इससे साफ़ था कि ज़ायनिस्ट सही रास्ते पर जा रहे थे। ऐसे लोग जिनके पास अपना कोई देश नहीं है या ऐसे लोग जो ख़ुद को भेड़ की तरह मौत की तरफ ले जाते हैं। इसलिए भी कि जो लोग यूरोप में बच गए थे, उनके पास जाने को और कोई जगह नहीं थी। बहुत सारे यहूदी ऐसी जगह की तलाश में थे, जिसे वो अपना कह सकें। अमेरिका ने अपने दरवाजे बंद रखे, वे घ
ुसने नहीं दे रहे थे। अमेरिका में कोई आप्रवासन नहीं हो रहा था। तो अगर शोआ नहीं भी हुआ होता, तो भी यहूदी यहां आते। ज़्यादा से ज़्यादा आते। शोआ के बाद पलमाख सैन्य बल ने मुझे यूरोप भेजा। मैं यूरोप में अभी भी ज़िंदा बचे लोगों से मिला। यह मेरे लिए बेहद मुश्किल था, लेकिन मैं रुका। एक वक्त ऐसा आया, जब मैं कुछ युवा लोगों के साथ गया जो अवैध रूप से इटली और फ्रांस के रास्ते जाना चाहते थे। वो समय बर्फीला और ठंडा था। मैं पूरे एक हफ़्ते उनके साथ रहा। हर रात मैं उनमें से किसी न किसी को डरावने सपनों के कारण चीखते
हुए सुनता था। इसने मुझपर गहरा असर डाला। इस घटना ने मुझे बदल दिया। युद्ध के बाद बचे कई लोग व्यथित थे। उन्हें भयानक नुकसान उठाना पड़ा था और अब उन्हें लग रहा था कि वे दुनिया में अकेले हैं। लोग भयानक सदमे से जूझ रहे थे। लेकिन कोई भी इसे शब्दों में बयां नहीं कर पा रहा था। अधिकतर लोगों ने पूरा परिवार खो दिया था। जिनके दादा-दादी दोनों ज़िंदा थे, उनके बारे में हम कहते, सोचो तो, इनके दादा-दादी अब भी हैं। यह किताबों की कहानियों जैसा लगता था, असल ज़िंदगी सा नहीं। मेरा जन्म सितंबर 1946 में ऑस्ट्रिया के लिंस
शहर के पास शरणार्थियों और यहूदियों के एक शिविर में हुआ था। मैंने अपने जीवन के पहले दो साल उस शिविर में बिताए, मैं वहीं बड़ा हुआ। 1945 के बाद होलोकॉस्ट में बचे लोगों को जर्मनी और ऑस्ट्रिया में "विस्थापित लोगों" या डीपी शिविरों में जाना पड़ा। उन्हें कांटेदार बाड़ के पीछे रखा गया और मित्र देशों के सैनिक उनके साथ बहुत खराब व्यवहार करते थे। वे उन देशों में नहीं लौटना चाहते थे, जहां उनके परिवारों की हत्या हुई थी। एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन को सूचना दी, ऐसा लगता है कि हम यहूदि
यों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं, जैसा नाज़ियों ने उनके साथ किया, फ़र्क़ केवल इतना है कि हम उन्हें मार नहीं रहे। हमने 1946 की गर्मियों में कियालसेह में हुए नरसंहार के बाद पोलैंड छोड़ दिया। हम अमेरिका जा सकते थे, लेकिन मेरी मां ने कहा कि शोआ के बाद हम एक यहूदी जगह जा रहे हैं। हम ब्रिटिश मैन्डेट सरकार की इजाज़त के बिना एक ग्रीक जहाज़ में आए थे। हमारे पास जाली कागजात थे और जिस दिन हम पहुंचे, कर्फ्यू लगा हुआ था। मेरी मां ने कहा, हम कहां उतरे हैं? फिलिस्तीन के तट पर यहूदी प्रवासियों को रोकने और उन
्हें साइप्रस भेजने के लिए अंग्रेजों ने ऑपरेशन “इग्लू” शुरू किया। इस किस्म के निर्वासनों को आंतरिक रूप से शिष्टाचार की भाषा में कहा जाता था, जगह परिवर्तन और पुनर्वास। ब्रिटिश सेना हाइफा के बंदरगाह पर उन अप्रवासियों को ले जाने वाले जहाज़ों के आने का इंतजार कर रही थी, जिनके पास सही काग़ज़ात नहीं होते थे। अधिकारी तब यात्रियों को ख़ास तौर पर साइप्रस की ओर जाने वाले सुरक्षित निर्वासन जहाज़ों में स्थानांतरित कर देते थे। इन कंटीले तारों से घिरे और सैनिकों द्वारा संरक्षित डिटेंशन कैंपों में 50,000 से ज़्
यादा यहूदी पहुंचे। अधिकांश कैदी होलोकॉस्ट से बचकर आ रहे थे। दार्शनिक हाना आरेंट ने लिखा कि साइप्रस के डिटेंशन कैंप केवल इसलिए संभव हुए कि पूरी दुनिया इसे आउसवित्स की तुलना में 'मानवीय' समझती है। ब्रिटिश यहूदी आप्रवासन को किसी नीति परिवर्तन के कारण नहीं रोक रहे थे। वो ऐसा इसलिए कर रहे थे कि वो जानते थे कि फिलिस्तीन में उनके दिन गिने-चुने रह गए हैं। जून 1946 में ब्रिटिश अधिकारियों ने मैन्डेट्री फिलिस्तीन में ऑपरेशन "अगाथा" चलाया। उन्होंने बस्तियों में छानबीन की और ऐसे दस्तावेज़ खोज निकाले, जो साबि
त करते थे कि यहूदी एजेंसी ने नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों का समर्थन किया था। अंग्रेजों ने कार्रवाई की। 2,700 लोगों को गिरफ़्तार किया। यह ज़ायनिस्टों के लिए बड़ा झटका था। महीने भर बाद एक यहूदी भूमिगत अर्धसैनिक समूह के सदस्यों ने किंग डेविड होटल में ब्रिटिश प्रशासनिक मुख्यालय को उड़ा दिया। 91 लोग मारे गए। हमले की व्यापक रूप से निंदा की गई, लेकिन इसने ब्रिटेन की अगली योजनाओं पर गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेजों ने देखा कि यहूदी संगठन बेहतर रूप से संगठित हो रहे थे और उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा
था। ब्रिटेन ने पीछे हटने का फ़ैसला किया। माहौल बदतर होता गया और 1947 तक हालात बहुत ख़राब हो गए। अप्रैल 1947 में अंग्रेजों के अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र ने एक अंतरराष्ट्रीय जांच समिति गठित की। अंतिम रिपोर्ट में फिलिस्तीन को एक यहूदी और एक अरब देश में विभाजित करने की सिफ़ारिश की गई थी। ब्रिटेन ने प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। उसने घोषणा की कि वह 6 महीने में फिलिस्तीन में अपना मैन्डेट समाप्त कर देगा। इसमें कोई शक नहीं था कि शोआ ने संयुक्त राष्ट्र के ज़्यादातर सदस्यों को बहुत प्रभावित किया था। और यहां आ
कर यूरोप में यहूदी शरणार्थी शिविरों का दौरा करने वाली संयुक्त राष्ट्र समिति ने फ़ैसला किया कि जो कुछ हुआ उसके बाद यहूदियों को एक देश देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। 1948 में फिलिस्तीनी नेता यह समझने में नाकाम रहे कि होलोकॉस्ट के बाद पूरी दुनिया सहमत थी कि पीड़ितों को मुआवज़ा मिलना चाहिए। और नाज़ी बर्बरता के बाद इसे ठीक करने का एकमात्र उपयुक्त उपाय था कि एक यहूदी देश का गठन हो। जब संयुक्त राष्ट्र समिति अपनी रिपोर्ट तैयार कर रही थी, तब यहूदी एजेंसी ने अंग्रेजों पर यहूदी प्रवासियों के लिए फिलिस्त
ीन की सीमाएं खोलने का दबाव डाला। अर्धसैनिक बल हगनाह ने एक पुराना जहाज़ किराए पर लिया और उसका नाम "एक्सोडस 1947" रखा। जुलाई में यह मध्य यूरोप के 4,500 यहूदी प्रवासियों को लेकर हाइफा के किनारे पहुंचा। अधिकांश लोग होलोकॉस्ट और ख़ौफ़नाक नाज़ी शिविरों से बचकर आए थे। विस्थापित लोगों के शिविरों में रहने के बजाय वो अवैध रूप से फिलिस्तीन आने वालों में शामिल हो गए। लेकिन उनकी उम्मीदें तब धराशायी हो गईं, जब ब्रिटिश नौसैनिक बलों ने जहाज़ पर चढ़कर तलाशी ली। इस झड़प में तीन यात्रियों की मौत हो गई और 100 लोग घा
यल हो गए। इस पूरी यात्रा के दौरान भयानक झड़पें हुईं। हाइफा से उन्हें वापस फ्रांस और फिर हैम्बर्ग भेज दिया गया। इस घटना से एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। अंतरराष्ट्रीय आक्रोश का सामना कर रहे अंग्रेजों से इस मुद्दे को यथासंभव शांति से संभालने के लिए प्रोत्साहित किया गया। संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधिमंडलों ने फिलिस्तीन के भविष्य पर मतदान की तैयारी की। डेविड बेन-गुरियोन ने रेडियो पर पहला परिणाम सुना। उस वक्त पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति की विधवा पत्नी एलेनोर रूजवेल्ट उनके साथ थीं। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध
में शरणार्थियों की मदद के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में समर्थन जुटाया था। और संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फ्रांस अपनी योजनाओं पर चुप था। लेकिन लियोन ब्लूम ने, जो खाइम वाइत्समन के संदेश से बहुत प्रभावित हुए थे, अपने प्रभाव का उपयोग करने का वादा दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने इसके लिए अनिच्छुक सदस्य देशों के प्रतिनिधियों पर विभाजन के लिए मतदान करने का दबाव डाला। फिलीपींस और हैती को बदले में क़र्ज़ देने का वादा किया गया।
बहुमत विभाजन के ख़िलाफ़ था, लेकिन अमेरिकियों ने मतदान की तारीख़ आगे खिसकाने के लिए थैंक्सगिविंग के दिन का सहारा लिया। फिर वो दो छोटे देशों का समर्थन जुटा लाए, ऐसे देश जो दुनिया के नक्शे पर मुश्किल से दिखते हैं। अमेरिकियों ने अपने राष्ट्रीय अवकाश के दौरान बाकी देशों पर प्रभाव डाला, जिसके कारण ज़्यादातर देशों ने अपना मत बदल दिया। सोवियत संघ के विदेश मंत्री आंद्रेई ग्रोमीको ने ज़ायनिस्ट समर्थक भाषण देकर पश्चिमी दुनिया को हैरत में डाल दिया। पिछली जंग में यहूदियों ने असहनीय दुख झेला है। यह यहूदियों क
ी अपना अलग देश बनाने की चाह को स्पष्ट करता है। उन्हें इस अधिकार से दूर रखना अन्याय होगा। ग्रोमीको ने ख़ुद को एक ज़ायनिस्ट बताते हुए यह भाषण दिया। जबकि कई साल तक सोवियत शासन ने ज़ायनिस्टों को सताया और उन्हें जेल में डाल दिया था। जो कुछ हुआ, उससे ग्रोमीको के भाषण का कोई लेना-देना नहीं था। सोवियत राजनयिक भावुक होने के लिए नहीं जाने जाते थे। यह सब उनके अपने हित में था। सोवियत संघ मध्य पूर्व में अंग्रेजों की जगह लेना चाहता था। उसे मालूम था कि ब्रिटिश जा रहे थे और अमेरिका के आने से पहले वो वहां घुसना
चाहते थे। सोवियत संघ? हां यूनाइटेड किंगडम? मौजूद नहीं फ्रांस हां फिलिस्तीन कमिटी के प्रस्ताव को 33 मतों से अपनाया गया। विरोध में 13 मत डले और 10 अनुपस्थित रहे। नवंबर 1947 में विभाजन के फ़ैसले के समय हमें जो बहुमत मिला, वह दरअसल हम कभी हासिल नहीं कर पाते। उसे पाना बहुत कठिन होता। कभी-कभी लोग कहते हैं कि यह वोट शोआ से जुड़े मलाल के कारण हुआ। लेकिन यह विवेक पहले कहां था? यह इस देश का दुखद विरोधाभास है कि यह यहूदी लोगों पर बीती अब तक की सबसे बड़ी तबाही के कारण मुमकिन हुआ। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव
ने फिलिस्तीन को यहूदी और अरब देश में बांटने का प्रस्ताव दिया और येरुशलम को अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में होना था। लेकिन ज़्यादातर फिलिस्तीनी अरब और सभी पड़ोसी अरब राज्यों ने इसे ख़ारिज कर दिया। क्या फिलिस्तीनियों ने विभाजन की योजना को अस्वीकार कर के ग़लती की? क्या यह पनप रही कट्टरता का संकेत था? पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि संयुक्त राष्ट्र के विभाजन वोट का विरोध अरबों की ग़लती थी। आज हम यह कह सकते हैं कि ग़लतियां हुईं। 1947 से पहले भी बहुत कुछ ग़लत हुआ था। उनके दृष्टिकोण से अचानक उनके बगल में किस
ी यहूदी राष्ट्र का खड़ा होना बिल्कुल स्वीकार करने की बात नहीं थी। विभाजन के इस्राएल के सभी प्रयासों को फिलिस्तीनियों ने विफल कर दिया। उन्हें समझ नहीं आया कि वो अपनी मातृभूमि का आधा हिस्सा क्यों छोड़ें। समाज के भीतर कोई समझ नहीं बन पाई। लेकिन क्या चीजें अलग होतीं, क्या हम बेहतर स्थिति में होते अगर अरब लोगों ने उस वक़्त हां कहा होता? क्या इस्राएली या यहूदी सच में इसे स्वीकार कर लेते? जिस दिन संयुक्त राष्ट्र का फ़ैसला आया, मैं काफी छोटी थी और सो रही थी। मां ने मुझे जगाया, ताकि मुझे इस देश का बनना याद
रहे। यहूदियों को अपना देश दिया गया था! डेविड बेन-गुरियोन सतर्क थे। उन्होंने शिमोन पेरेस से, जो हथियारों की खरीद के प्रभारी थे, अपनी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा, आज तो लोग नाच रहे हैं, लेकिन कल खून बहेगा। पेरेस ने सोचा कि वह बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहे हैं, लेकिन यह अनुमान सच निकला। मेरे पिता ने वोट के नतीजे की घोषणा के दिन ही मुझसे कहा कि अब एक युद्ध होगा। इस्राएल युद्ध में जन्मा था। 29 नवंबर को लोग रातभर नाचे। और सबसे आखिर तक खुशियां मनाने वाले सुबह सबसे पहले मारे गए। उन्होंने कहा, जल्दी से तेल अवीव
लौट जाओ। रामले आने के रास्ते में ही वो मारे गए। पहला युद्ध 1948 में विभाजन के साथ ही शुरू हुआ। यह हगनाह और फिलिस्तीनियों के बीच का युद्ध था। पहला अरब-इस्राएली युद्ध। हुआ यह कि फिलिस्तीनियों ने फ़ैसला स्वीकार नहीं किया और युद्ध शुरू कर दिया। अरबों ने घातक आतंकवादी हमले किए। येरुशलम में तीन कार बम रखे गए थे। एक "द फिलिस्तीन पोस्ट" अख़बार की इमारत के सामने, दूसरा बेन येहुदा स्ट्रीट बाजार में और तीसरा यहूदी एजेंसी के कार्यालयों में। हाइफा में हगनाह से टूटकर बने एक अर्धसैनिक समूह इरगुन के सदस्यों ने
अरब श्रमिकों के एक समूह पर दो बम फेंके। उनमें से छह की मौत हो गई। इससे पहले कि ब्रिटिश सैनिक व्यवस्था बहाल कर पाते, प्रतिक्रिया में गुस्साई भीड़ ने 39 यहूदियों को मार डाला। मार्च 1948 में "डालेट" नामक योजना बनाई गई, जिससे हगनाह को व्यवस्था बनाए रखने और फिलिस्तीनियों को बाहर निकालने की इजाज़त मिल गई। बेन-गुरियोन ने 15 मई को ब्रिटेन की वापसी के समय इसे लागू करने की योजना बनाई थी। लेकिन ज़मीन पर लड़ाई लड़ते हुए, हगनाह आक्रामक हो गया और इस योजना को अप्रैल में ही लागू कर दिया। हगनाह ने लोगों पर देश छ
ोड़ने का दबाव बढ़ा दिया। रात में गोलियां चला करती थीं, चारों ओर बहुत सारी जीपें चलती थीं। ऐसी चीजें होती, तो लोग घबरा जाते थे। वहां हमेशा बाकी लोगों को बसाने के लिए इलाकों को खाली करवाने की बात होती थी। नीति बहुत साफ़ थी। हमारे पास यहूदी सेना की, जो उस समय हगनाह थी, सैन्य परिचालन योजनाएं थीं और वे सभी इलाके खाली करवाने पर केंद्रित थीं। जब मेरे माता-पिता येरुशलम आए, उन दोनों को अलग-अलग ऐसे अपार्टमेंटों की पेशकश की गई, जो भागे हुए फिलिस्तीनी शरणार्थियों के थे। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि दो
नों ने उसे लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि हम शरणार्थी होकर शरणार्थियों के घर में कैसे रह सकते हैं? यह बात समझाने के लिए कुछ नरसंहार किए गए कि अगर लोग भाग गए, तो ही उनकी जान बच सकती है। मार्च 1948 में दीर यासीन में एक ऐसी घटना हुई, जिससे दहशत फैल गई। येरुशलम से पांच किलोमीटर की दूरी पर बसा दीर यासीन 600 निवासियों वाला छोटा सा अरब गांव था। हगनाह के लिए इसका कोई सामरिक महत्व नहीं था। लेकिन दो ज़ायनिस्ट अर्धसैनिक समूहों, इरगुन और लेही ने उस गांव पर हमला कर दिया। 9 अप्रैल की सुबह ऑपरेशन को ठी
क से संभाला ना जा सका। फिलिस्तीनियों ने जवाबी हमले में पांच लोगों को मार गिराया। इरगुन और लेही अब और घातक हो गए, घरों पर क़ब्ज़ा कर लिया और कुछ घरों को विस्फोटकों से उड़ा दिया। इस नरसंहार में करीब 200 लोग मारे गए थे। यह नई तरह की स्थिति थी। उन्होंने लोगों को भागने को मजबूर करने के लिए योजनाबद्ध कार्रवाई करने की कोशिश की। जैसे लोगों की हत्या करके या जैसा दीर यासीन या दूसरे गांवों और लोद जैसे शहरों में हुआ था। लोग डर से जान बचाने के लिए भाग गए। दीर यासीन सभी ने दीर यासीन के बारे में सुना। और हर को
ई सोचने लगा कि अगर हम रुके और हमारे पास ये यहूदी सेनाएं आईं, तो वे भी हमें मार डालेंगे। जैसा उन्होंने दीर यासीन में किया था। बेहतर होगा कि हम यहां रुककर मारे जाने का इंतजार न करें। दीर यासीन के बारे में अफ़वाहों ने लोगों को डरा दिया। उन्हें यकीन था कि ज़ायनिस्ट उन्हें मार डालेंगे। मुझे लगता है कि ज़ायनिस्ट वास्तव में उन्हें मारना नहीं चाहते थे, लेकिन वो जितना संभव हो उतने लोगों को भगाना चाहते थे। दीर यासीन की घटना शुरुआती दौर में हुई और इसे कई अरब लोगों को समझाने, डराने और अपने घरों से भगाने के
लिए मनोवैज्ञानिक युद्ध के रूप में इस्तेमाल किया गया था। दीर यासीन में इस घटना के तुरंत बाद, इस्राएल में नियुक्त पहले अमेरिकी राजदूत ने "शांतिवादी" वाइत्समन के साथ वार्ता की, जिसमें उन्होंने नरसंहार को निरर्थक बताया। वाइत्समन ने बेहद डरावनी बात कही। उनके शब्दों में, इस नरसंहार ने इस्राएल के इरादों को चमत्कारिक तरीके से आसान बना दिया। इसने सबसे ज़िद्दी लोगों को भी चले जाने के लिए राज़ी किया। बच्चों ने यही सीखा कि ठीक है, लोगों का मरना शर्म की बात है, लेकिन यह उतना भी ज़रूरी नहीं। ज़रूरी यह है कि ह
मारे पास अपना देश होगा। 14 मई, 1948 को तेल अवीव की सड़कों पर डेविड के सितारे वाले झंडों के साथ भीड़ ने उत्साह के साथ मार्च किया। येरुशलम घिरा हुआ था और वहां पहुंचना मुश्किल था। डेविड बेन-गुरियोन ने थिओडोर हैर्त्सल की तस्वीर के नीचे खड़े होकर घोषणा की, हम आज से यहूदी राष्ट्र की स्थापना की घोषणा करते हैं, जो इस्राएल के नाम से जाना जाएगा। उन्होंने कहा, हम अपने सभी पड़ोसी देशों की तरफ दोस्ती और शांति का हाथ बढ़ाते हैं। इस मुल्क में हमारे और अरब लोगों के लिए पर्याप्त जगह है। इस तरह इस्राएल का जन्म हु
आ। सपना हक़ीक़त बन चुका था। लेकिन अरब की उच्च समिति ने पहले ही घोषणा की थी, अरब लोग दृढ़तापूर्वक ईश्वर और इतिहास के सामने घोषणा करते हैं कि वो विभाजन को लागू करने के लिए फिलिस्तीन में आने वाली किसी भी ताकत के सामने नहीं झुकेंगे। ब्रिटेन का मैन्डेट आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया और सैनिक घर लौट गए। ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ ने प्रतीकात्मक रूप से ज़ायनिस्ट नेताओं को राष्ट्र की कमान सौंपी। मैं इतना उत्साहित था कि कई रातों तक सो नहीं पाया। अंग्रेजों से आजाद तेल अवीव। अंग्रेज इस्राएल छोड़ चुके थे, लेकिन उ
न्होंने अरबों के लिए बहुत से हथियार छोड़े थे। अंग्रेज शुरू में ज़ायनिस्ट विरोधी थे। उन्हें यह भी यकीन नहीं था कि खून से पैदा हुआ इस्राएल अरब सेनाओं का सामना कर सकेगा। अधिकांश राजनयिकों और विश्व के नेताओं और यहां तक कि यहां के कुछ ज़ायनिस्ट नेताओं को भी इस नए बने देश के लिए अरब सेनाओं के हमले का सामना करना नामुमकिन नहीं, तो मुश्किल जरूर लगा। पड़ोसी अरब देशों की सेनाएं पूर्व ब्रिटिश मैन्डेट वाले पुराने इलाके में घुस गईं। पहला अरब-इस्राएल युद्ध शुरू हुआ। मिस्र के विमानों ने तेल अवीव पर बमबारी की। न
ाज़ियों के यातना शिविरों से आज़ादी के लगभग तीन साल बाद अधिकांश यहूदी मान रहे थे कि वे इस बार अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे थे। वह यक़ीनन एक ग़लती थी, ऐसे युद्ध में प्रवेश करना जिसके लिए वो तैयार नहीं थे। ध्यान रखिए कि अरबों ने जंग छेड़ी और हार गए। क्या इस्राएल बेहतर व्यवहार कर सकता था? हां हर जगह घोषणा की गई, अगर आप हाइफा जाने वाली तटीय सड़क लेते हैं, तो आप सुरक्षित रहेंगे। आप ठीक रहेंगे, आप बच सकते हैं। उन्होंने हाइफा से तेल अवीव तक ट्रक लोड किए। गांवों के लगभग सभी निवासियों को बाहर कर दिया गया। लो
गों को ख़तरा महसूस हो रहा था और वहां रहना सुरक्षित नहीं लग रहा था। और उन लोगों ने सोचा, जैसा कि जाफा में मेरे माता-पिता ने सोचा था कि वो चले जाएंगे तो सुरक्षित रहेंगे। जैसा कि लोग युद्ध में सोचते हैं कि जंग ख़त्म होने पर लौट आएंगे, लेकिन वो फिर कभी वापस नहीं जा पाए। मेरे पिता ने कुछ हफ़्ते पहले मुझे और मेरी मां को एक ट्रक पर बिठाया। यक़ीन मानिए इस ट्रक ने महिलाओं और बच्चों को लेबनान की दक्षिणी सीमा पर ले जाकर बस पटक दिया। जब शहर ध्वस्त हो गया, मेरे पिता और बहन बंदरगाह गए और शहर से बाहर जा रही आख
़िरी नाव में सवार हो गए। तो वे समुद्र के पार निर्वासन में लेबनान पहुंच गए। नकबा से बचकर निकले एक आदमी ने मुझे बताया, जाफ़ा में नावें तैयार खड़ी थीं। क्या उनका वहां होना संयोग मात्र था? नहीं वो नावें लोगों को भगाने के लिए थीं, वरना उन्हें बाहर निकाल दिया जाता। अपनी मर्ज़ी से कोई नहीं जाता। कोई भी अपनी इच्छा से अपना घर, खेत अपनी ज़मीन नहीं छोड़ता। युद्ध में लोग डर जाते हैं और भाग जाते हैं। और उन्हें, ख़ासतौर पर किसानों को उम्मीद रहती है कि युद्ध समाप्त होने के बाद वो अपनी ज़मीन और अपने घरों को लौट
आएंगे। अरब नेताओं ने कहा, अभी ये जगह छोड़ दो और बाद में लौट आना। हम जीतेंगे। हम वापस आएंगे और सब कुछ ले लेंगे, अपनी संपत्ति, अपनी ज़मीन हम जीतेंगे मेरी नज़र में ये गुनाह है कि उन्हें वापस नहीं जाने दिया गया। युद्ध में लोग विस्थापित होते हैं। लेकिन जब उन्होंने लौटने की कोशिश की, तो हमने उन पर गोली क्यों चलाई? मई में हुई इस्राएल की स्थापना के कुछ महीने बाद जुलाई में लोगों को बंदूक की नोक पर अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। हम उन 7,50,000 फिलिस्तीनियों के बारे में बात कर रहे हैं, जो 1948 से प
हले, उसके दौरान और बाद में विस्थापित हुए। कई सारे ऑपरेशनों के बाद, जिसमें कई बार संघर्ष विराम भी हुआ, इस्राएल की सेना ने येरुशलम को छोड़कर सभी मोर्चों पर जीत हासिल की। येरुशलम को युद्धविराम रेखा से बांटा गया, जिससे पुराना शहर अरब लोगों की ओर हो गया था। जॉर्डन के सैनिकों ने यहूदी आबादी को खदेड़ दिया। वेस्ट बैंक पर जॉर्डन ने क़ब्ज़ा कर लिया और गाजा पट्टी पर मिस्र ने क़ब्ज़ा कर लिया। 1947 तक उन्होंने फिलिस्तीनी ज़मीन का दस प्रतिशत, केवल दस प्रतिशत खरीदा था। 1948 में युद्ध के बाद बाकी ज़मीन पर क़ब्ज़
ा करके उसे अपने अधिकार में ले लिया गया। 1948 में युद्ध के कारण इस्राएल के बनने से पहले देश में रहने वाले 9,00,000 फिलिस्तीनी अरबों में से अधिकांश भाग गए। केवल 1,50,000 फिलिस्तीनी रह गए, जो इस्राएली सैन्य प्रशासन के अधीन थे। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने शरणार्थियों की सहायता के लिए कोई बड़ा काम नहीं किया। आपको ध्यान रखना होगा कि 1948 में यूरोप में लाखों विस्थापित लोग थे। 8,00,000 फिलिस्तीनियों, या जैसा कि उस वक़्त हम उन्हें "मूलनिवासी" कहते थे, उनके लिए बहुत मायने नहीं रखता था।

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