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भारत के वेश्यावृत्ति वाले गांव [India’s Prostitution Villages] | DW Documentary हिन्दी

कुछ भारतीय गांवों में, सेक्स वर्क एक तरह की विरासत है. मांएं और दादियां पहले से ही इस व्यवसाय में काम कर चुकी हैं. वे आम तौर पर उन जनजातीय समूहों से हैं जो ज़्यादातर बतौर कलाकार काम करते थे. ब्रिटिश राज ने इन्हें आपराधिक जातियां घोषित कर दिया था. आज भी इन जनजातीय समूहों के लिए साधारण नौकरियां पाना ख़ासा मुश्किल है. इसलिए, परिवार की महिला सदस्य ही अक्सर घर चलाती हैं. वे ही कर्ज़ लेती हैं, घर बनाती हैं, अहम फैसले लेती हैं, जो कि भारत में, अपने आप में एक दुर्लभ चीज़ है. रिपोर्टर आकांक्षा सक्सेना और नीरत कौर इन गांवों में पहुंचीं और उन्हें बदलाव के संकेत दिखे. युवा पीढ़ी इस कष्टदायी दुखद परंपरा को पीछे छोड़ने, बेहतर शिक्षा और अधिकारों के लिए लड़ने की कोशिश में जुटी है. #DWDocumentaryहिन्दी #DWहिन्दी #India #CriminalTribesAct #prostitution #castesystem ---------------------------------------------- अगर आपको वीडियो पसंद आया और आगे भी ऐसी दिलचस्प वीडियो देखना चाहते हैं तो हमें सब्सक्राइब करना मत भूलिए. विज्ञान, तकनीक, सेहत और पर्यावरण से जुड़े वीडियो देखने के लिए हमारे चैनल DW हिन्दी को फॉलो करे: @dwhindi और डॉयचे वेले की सोशल मीडिया नेटिकेट नीतियों को यहां पढ़ें: https://p.dw.com/p/MF1G

DW Documentary हिन्दी

6 months ago

राजकुमारी सड़क किनारे खड़ी होकर ग्राहकों का इंतज़ार कर रही हैं। उन पर अपने छोटे बच्चों और परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी है। अभी तक कोई नहीं मिला। राजकुमारी उन लाखों भारतीय महिलाओं में से हैं, जो संस्थागत वेश्यावृत्ति का हिस्सा हैं। इसकी जड़ें सदियों पुरानी जाति व्यवस्था से जुड़ी हैं। भारत की राजधानी नई दिल्ली से महज़ तीन घंटे की दूरी पर एक बिल्कुल अलग दुनिया बसती है। मैं उन गांवों की ओर जा रही हूं जहां सेक्स वर्कर रहती हैं। यह है राजस्थान के अलवर ज़िले का घेघोली गांव। यहां मैं अंकिता से मिली। य
े भी सेक्स वर्कर हैं। उनके अनुरोध पर हमने उनका नाम बदल दिया है। वे खुद को बालिग़ बताती हैं, लेकिन देखकर ऐसा नहीं लगता। अंकिता एक ग्राहक के लिए तैयार हो रही हैं। उनके ग्राहकों में नजदीकी गांवों के मर्द, हाइवे से गुज़रने वाले ट्रक ड्राइवर, प्रवासी मज़दूर या मामूली कमाई करने वाले नौजवान शामिल हैं। उन्होंने 3 साल पहले यह काम शुरू किया और कहती हैं कि अपनी इच्छा से किया ताकि उनका परिवार पल सके। पापा ने बताया कि हमारी बुआ थी अलवर में, इस लाइन में काम करती थी। गरीबी की वजह से मैं इस लाइन में आई। अभी तुम
कितना पैसा कमा लेती हो, महीने में? महीने में 60-70 हज़ार कमा लेती हूं। 60-70 हज़ार अब घर में और कोई है नहीं। घरवाले ज्यादा परेशान होते थे, घर में रोते थे। तो मैंने बोला मैं ये काम करूंगी। मैं पैसा कमा कर दूंगी तुम्हें। घर बनाना है, बहन की शादी करनी है। और कोई कर्ज है जो उतारना है? उतार दिया कितने का कर्ज था? 10 लाख का दस लाख! दस लाख रुपये तुमने उतार दिए? दो साल में? तीन साल में। कर्ज़ के चलते यहां कई परिवार मुश्किलों में फंसे हैं। बैंक उन्हें इसलिए लोन नहीं देते क्योंकि वे सेक्स वर्क को काम नही
ं मानते। तो ये परिवार स्थानीय लेनदारों के पास जाते हैं, जो उनसे ऊंची ब्याज दरें वसूलते हैं। यानी परिवार ग़रीबी के दलदल में धंसते चले जाते हैं। रचना, इनका नाम भी बदला गया है, वे अपने सात भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं। भारी कर्ज़े में होने के कारण, अपनी मां और मौसी की तरह ही, वे भी सेक्स वर्कर का काम करती हैं। मैं 15-20 साल की थी, तब से मैं ये काम समझने लग गई थी। जब मैंने अपने परिवार की खराब स्थिति देखी। तब मैं खुद ही आ गई इस काम में। क्या स्थिति थी परिवार में? मेरे छोटे-छोटे भाई थे, बहनें थीं। भीख
मांग कर खाते थे हम। दूसरे के घर पर भीख मांगने जाते थे, वहां जाकर खाना खाते थे। हमारे रहने का ठिकाना नहीं था। घर-बार नहीं था, ज़मीन, जायदाद कुछ नहीं था। मेरी मम्मी यह काम करती थीं। हमारा घर चलाने के लिए वो मुंबई में होटल में जाती थीं। हम तब छोटे थे। फिर मैं समझने लग गई कि हां मम्मी घर चलाने के लिए ऐसे होटल में जाती हैं, यह काम करती हैं। फिर मैंने मम्मी को मना कर दिया। मम्मी आप होटल में मत जाया करो, हमको अच्छा नहीं लगता। मैं जाऊंगी, मैं कमाऊंगी और अपना घर चलाऊंगी। रचना एक एजेंट की मदद से मुंबई गईं
, जिसने एक स्थानीय दलाल के संपर्क में उन्हें वेश्यावृत्ति के बड़े नेटवर्क में पहुंचा दिया। भारत में 15 से 35 साल की उम्र की लगभग 30 लाख सेक्स वर्कर हैं। भारत में वेश्यावृत्ति वैध है, पर दलाली और मानव तस्करी नहीं। लेकिन पुलिस इस पर आंख मूंदे रहती है। रचना जैसी कई महिलाओं के लिए यही गुजर-बसर का ज़रिया है। वे शोषण का शिकार होती हैं, लेकिन कोई और काम न होने के चलते इसे छोड़ भी नहीं सकतीं। एक बार बॉम्बे में, जब मैं इतनी समझदार नहीं थी, तो एक कस्टमर के साथ चली गई। तो कस्टमर ने बॉम्बे में मेरे साथ बहुत
बुरा सुलूक किया। पैसे भी नहीं दिए और मुझे बहुत मारा भी था। और मेरे साथ बहुत उल्टा-सीधा काम किया उसने। मेरे सब कपड़े लेकर उसने बाथरूम के ऊपर डाल दिए थे, कि मैं ले ना पाऊं। मतलब बहुत बुरा हाल किया। इन गांवों के साथ एक कलंक जुड़ा है, क्योंकि यहां रहने वाले लोग पिछड़ी जातियों के हैं। नट, बेड़िया, बंछड़ा और कंजर, जिन जातियों से ये महिलाएं आती हैं, वे पारंपरिक तौर पर खानाबदोश जातियां हैं। एक जगह से दूसरी जगह घूमने वाली यह जातियां अलग-अलग हिस्सों में फैली हैं, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और उ
त्तर प्रदेश में खासकर पाई जाती हैं। महिलाओं के वेश्यावृत्ति में शामिल होने से पहले, ये जनजातियां ज़्यादातर बतौर कलाकार काम करती थीं नाच-गाना, करतब-कलाबाज़ी और जादू सिखाना। इनके काम और रहन-सहन के तरीक़ों के कारण, ब्रिटिश राज ने हमेशा इन जनजातीय समूहों को ख़तरा माना। 1871 में आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत इन्हें आपराधिक जातियां बना दिया गया। यह कानून भारत को आजादी मिलने पर ही खत्म हुआ। इन जनजातियों को लेकर समाज में आज भी कायम कुछ रूढ़िवादी धारणाओं ने, इनके लिए दूसरे कारोबार या रोज़गार शुरू करना लग
भग नामुमकिन बना दिया है। मैंने इस समुदाय के ही एक परिवार के पुरुषों से मुलाकात की। यहां बहुत पक्षपात है। हमें अगर नौकरी मिले तो हम इस लाइन में जाएंगे ही नहीं। हमारा सुधार होगा, घर में एक-दो लोग काम करेंगे तो कमाई भी होगी। अब कमाई इतनी होती नहीं है, खर्चा ज्यादा है, तो इस वजह से हम पिछड़े हुए हैं। बाहर का समाज आप लोगों के समाज को बहुत अच्छे नज़रिए से शायद नहीं देखता। क्या आप लोगों ने कभी इस तरह के पक्षपात का सामना किया है बाहर के समाज से? करते हैं, बहुत लोग करते हैं पक्षपात। पहले हम बाहर जाते थे
तो कोई पास में भी खड़ा नहीं होने देता था कि तुम इस जाति के हो, यहां से चले जाओ। बहुत बातें करते थे। पर अब थोड़ा-थोड़ा सुधार आ गया है। पढ़ाई-लिखाई की वजह से थोड़ा सुधार आ गया है। पहले तो हमें कोई घर के पास भी खड़ा नहीं होने देता था। स्कूल जाते थे तो बहुत बुरा लगता था। कोई हमें पास नहीं बिठाता था, हम दूर बैठते थे। हम अपनी आईडी भी नहीं दिखाते थे कि हम कौन सी जाति के हैं। यहां कुछ बच्चों को नहीं पता कि उनका पिता कौन है, ज़ाहिर है उनकी मांओं के ग्राहक अपना नाम नहीं देते। लेकिन यह एक अहम समस्या है, क्
योंकि कई जगहों पर पिता के नाम के बिना आधिकारिक पंजीकरण नहीं होता। यानी ज़िंदगी परेशानियों के साथ ही शुरू होती है। लेकिन यहां की महिलाएं खुद के बूते परिवार का पालन-पोषण कर लैंगिक धारणाओं को तोड़ रही हैं। जो कमाता है वही ताकतवर होता है। जैसे हमारे यहां पर लेडीज़ कमाती हैं, तो सारा घर वही चलाती हैं। उन्हीं की चलती है घर में। भले वो इस लाइन में काम करती हैं, पर हम उन्हें अपने से आगे ही रखते हैं, उन्हें पूरी इज़्ज़त देते हैं। ये महिलाएं परिवार के लिए पैसा कमाती हैं, संपत्ति बनाती हैं और घर बनवाती हैं
। वे परिवार का कर्ज़ा चुका सकती हैं, जो भारत की बहुत सी महिलाएं नहीं कर पातीं। इनमें से कुछ गांव छोड़कर देश के प्रमुख शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई या कोलकाता में जाकर बस जाती हैं, और यहां तक कि दुबई में भी। इन सेक्स वर्करों के पति, पिता और भाई भी इस व्यवसाय को कायम रखते हैं और परिवार की कमाई में भागीदारी निभाते हैं। वे दलाल का काम करते हैं, साथ ही घरेलू कामकाज के अलावा बच्चों को भी संभालते हैं। लेकिन ऐसी भी महिलाएं हैं जो खुद पर ही निर्भर हैं। यह काफी मुश्किल है, ख़ासकर तब, जब उनकी उम्र ढल जाती है।
स्नेहलता की सिर्फ एक बेटी थी, जो सेक्स वर्कर थी। लेकिन उसकी मौत हो गई। शायद यौन रोग के कारण। मेरे कोई और बच्चे नहीं हैं। वो बीमार थी। ज्यादातर महिलाएं जिनसे हमने बात की, वो इस ज़िंदगी से निकलना चाहती हैं। अंकिता का सपना है कि वे पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर शादी करे। रचना अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा देने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रही हैं। उन्हें लगता है यह उनकी आज़ादी की राह बन सकती है। इन गांवों में धीरे-धीरे एक बदलाव जगह बना रहा है। मैं गुड्डू नागर से मिली। वे अध्यापक हैं। वेश्यावृत्त
ि के खिलाफ काम करने वाला एक एनजीओ उन्हें आर्थिक मदद देता है। आज वे अंग्रेज़ी व्याकरण सिखा रहे हैं। वे मानते हैं कि अच्छी शिक्षा ही इन महिलाओं को रोज़गार के ज्यादा सुरक्षित मौके दिला सकती है। कुछ परिवार ऐसे हैं कि जिनको हमने शिक्षा से जोड़ा। एक बच्ची है जो पढ़-लिखकर जयपुर में जेल पुलिस में काम कर रही है। उसने एम.ए.-बीएड किया हुआ है। उसका एक भाई सीआरपीएफ में है। वो पूरा परिवार ही शिक्षित हो गया। एक परिवार और है यहां। उनके सारे बच्चे जयपुर के अस्पताल में लैब टेक्नीशियन की पोस्ट पर हैं। उसकी एक बहन
ने एम.कॉम किया है, वो तैयारी कर रही है। एक डॉक्टरी की तैयारी कर रही है। तो ये हमारे दो-चार परिवार पूरे बदल गए हैं। गुड्डू नागर भी इन्हीं जनजातियों से हैं। उनके रिश्तेदार भी वेश्यावृत्ति में थे। लेकिन वे इस क्रम को तोड़ना चाहते थे। तो उन्होंने पहले खु़द को शिक्षित किया और फिर अपने परिवार वालों को पढ़ाया। ‘माइग्रेट कास्ट’ का मतलब है अभी यहां रहे, कुछ दिन के लिए वहां काम किया, फिर कहीं और पहुंच गए। इस वजह से हमारा कभी डेवलप्मेंट नहीं हुआ। मेरे चार भाई हैं, कोई पढ़ा-लिखा नहीं है। मेरी बहनें हैं, वो
पढ़ी-लिखी नहीं हैं। लेकिन मैं एजुकेशन से जुड़ा। एजुकेशन से जुड़ने के बाद "समृद्धि" ने मुझे सपोर्ट किया। एक तरह से मुझे प्रेरित किया और मैंने एम.ए.-बीएड किया। मैं इंग्लिश में एम.ए.-बीएड हूं और अभी बच्चों को पढ़ा रहा हूं। ऐसी भी कहानियां हैं, लेकिन बामुश्किल दिखाई पड़ती हैं। इस समुदाय के सदस्य अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य संवारने की कोशिश में जुटे हैं। मेरा नाम नैन्सी है, मैं बी.ए. फर्स्ट ईयर में हूं और एयर होस्टेस बनना चाहती हूं। एयर होस्टेस क्यों बनना चाहती हो? मेरा सपना है ये! उड़ना चाहती हो?
एक हल्की उम्मीद नज़र आती है कि शिक्षा और अधिकारों की समझ, इन महिलाओं को स्याह अतीत की बंदिशों से आज़ाद कर सकती है।

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